Book Title: Jain Kumarsambhava Mahakavya
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 217
________________ अर्थ :- सुमङ्गला ने अपने मुख के मित्र कमल की माँ कमलिनी के कंटकसहित होने के दोष का निराकरण करने के लिए इस प्रिय (श्री ऋषभदेव) के वचन सुनकर प्रमोद से पूर्ण अपने शरीर में रोमाञ्चोदय को धारण किया। तामेकतोऽमृतमयीमभितश्चकार, स्वप्नार्थसम्यगपलब्धिभवः प्रमोदः। चक्रेऽन्यतश्च दवदाहमयीं विषादः, प्राणेशितुर्वचनपानविरामजन्मा॥ ७९॥ अर्थ :- स्वप्नों के अर्थ की भली प्रकार प्राप्ति से उत्पन्न हर्ष ने उस सुमङ्गला को चारों ओर से एक ओर अमृतमयी बना दिया दूसरी ओर प्राणनाथ के वचन पान के विराम से उत्पन्न विषाद ने दावाग्निमय कर दिया। नहि बहिरकरिष्यद्वक्षसोऽस्याः स्तनाख्यं, यदि तरुणिमशिल्पी मण्डपद्वन्द्वमुच्चैः। तदिह कथममास्यल्लास्यलीलां दधानं, प्रभुवचनसुताप्तिस्फीतमानन्दयुग्मम् ॥ ८०॥ अर्थ :- यौवनरूप शिल्पी सुमङ्गला के स्तन रूप मण्डपद्वय को अत्यधिक रूप से यदि वक्षःस्थल के बाहर नहीं करता तो वक्षःस्थल में ताण्डवनृत्य की लीला को धारण करने वाला तथा प्रभु के वचनों के अनुसार पुत्र की प्राप्ति से वृद्धि को प्राप्त हुआ आनन्दयुगल कैसे समाता? सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छविधम्मिल्लादिमहाकवित्वकलनाकल्लेलिनीसानुमान्। वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते, सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्ये गतस्तत्त्वभाक्॥८१॥ अर्थ :- कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्लकुमारचरितादि महाकवित्व के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील रहें। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में पदार्थ की संख्या वाला अर्थात् नवम सर्ग समाप्त हुआ। इस प्रकार श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का नवम सर्ग समाप्त हुआ। 000 [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९] (१४०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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