Book Title: Jain Hitopadesh Part 2 and 3
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

View full book text
Previous | Next

Page 385
________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. री अधिकारीनी हितशिक्षानो अनादर नज करवो जोइए. (१४५) मुमुक्षु जनोए क्षुधादिकनो उदय थये छते गुर्वादिकनी संमती लइने निर्दोष आहार पाणीनी गवेषणा करी तेवो निर्दोष आहार प्रमुख मळे तो ते अदीनपणे लड़ने गुर्वादिकनी समीपे आचीने तेनी आलोचना करी गुर्वादिकनी रजाथी अन्य मुमुक्षु जननी यथायोग्य भक्ति करीने लोलुपता रहीत लावेलो आहार संयमना निर्वाह माटे वापरतां मनमां समभाव राखी तेने वखाण्या के वखोडयाविना पवित्र मोक्षना मार्गमां पुनः कटि वद्ध थइने विशेषे उद्यम करवो जोइए. १६९ (१४६) मुमुक्षु जनोनी शास्त्र आज्ञा मुजव वत्तीने करवामां आवती माधुकरी भिक्षाने ज्ञानी पुरुषो 'सर्व संपत् करी' कहे छे. (१४७) मुमुक्षु जनोनी शास्त्र आज्ञा विरुद्ध वर्त्तीने करवामां आवती भिक्षाने ज्ञानी पुरुषो 'वलहरणी' कहने वोलावे छे. . • ( १४८) केवळ अनाथ अशरण एवा आंधळां पांगळां विगेरे दीनजननी भिक्षाने ज्ञानी पुरुषो 'वृत्ति भिक्षा' कहीने बोलावे छे. (१४९) मुमुक्षु जनोए शास्त्र विरुद्ध मार्गे वर्त्ततां थती 'बलहरणी' भिक्षाने सर्वथा तजीने शास्त्र विहित मार्गे वतीने 'सर्व संपत्करी' भिक्षानोज खप करवो युक्त छे.

Loading...

Page Navigation
1 ... 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425