Book Title: Jain Hitopadesh Part 2 and 3
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 404
________________ १८८ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. एम नय भंग संगे सनूरो, साधना सिद्धता रुप पूरो; - साधक भाव त्यां लगें अधूरो, साध्य सिद्धे नहि हेतु सूरो. काळ अनादि अतीत अनंते जे पर रक्त, संगांगी परिणामे वर्ते मोहासक्त; पुद्गल भोगे रीझ्यो धारे पुद्गळ खंध, परकर्ता परिणामे बांधे कर्मनो बंध. 3 आतमगुण आवरणे न ग्रहे आतम धर्म, ग्राहक शक्ति प्रयोगे जोडे पुद्गळ शर्म; परलाभे पर भोगने योगे थाये पर कीरतार, ए अनादि प्रवर्ते वाघे पर विस्तार. ११ बंधक वीर्य करणे उदीरे, विपाकी प्रकृति भोगवे दळ विखेरे; कर्म उदयागता स्वगुण रोके', गुण विना जीव भवोभवे ढोके. २ १३ १२ तेहज हिंसादिक द्रव्याश्रव करतो चंचळ चित्त, कटुक विपाके चेतन मेळे, कर्म विचित्त;" પ १४ एम उपयोग वीर्यादि लब्धि, परभाव रंगी करे कर्म वृद्धि; परदयादिक या सुह विकल्पे, तदा पुण्य कर्म तणो बंध कल्पे. १५ १ अटकावे. २ रखडे, ३ मुख, ४ एकठा करे, संचे. ५ विचित्र.

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