Book Title: Jain Hitopadesh Part 2 and 3
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 407
________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १९१ तेह समता रस तत्त्व साधे, निश्चलानंद अनुभव आराधे; तीन घनघाति निज कर्म तोडे, संधि पडिलेहिने ते विछोडे. २७ सम्यग् रत्नत्रयी रस साचो चेतन राय, ज्ञानक्रिया चक्रे चकचूरे सर्व अपाय,४ कारक चक्र स्वभावे साधे पूरण साध्य, कतो कारण कारज एक थया निरबाध. २८ स्वगुण आयुध थकी कर्म चूरे, असंख्यात गुण निर्जरा तेह पूरे टळे आवरणथी गुण विकासे, साधना शक्ति तेम तेम प्रकासे. २९ प्रगटयो आतम धर्म थया सवि साधन रीत, वाधकभार ग्रहणता भागी जागी नीत; उदय उदीरण ते पण पूरण निर्जरा काज, अनभिसंधि बंधकता नीरसता आतमराज. देशपति जब थयो नित्य रंगी, तदा कोण थाय कुनय चाल संगी। यदा आतमा आत्मभाव रमाव्यो, तदा वाधक भाव दुरे गमाव्यो. ३१ १ ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनी अने अंतराय कर्म. २ लाग. ३ जोइने. ४ विघ्न. ५ कर्ता, कर्म, करण, संपदान, अपादान, अने अधिकरणरुप षट् ६ अनाउपयोगे वधाता कर्मनी ओछाश.

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