Book Title: Jain Hitopadesh Part 2 and 3
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 422
________________ २०६ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १५. सीदाता साधर्मी जनोने विवेकथी सहाय आपवा मेदान पड. १६. जे उत्तम पुरुषे आपणने उपगार को होय तेनी सामा थइ तेने नुकशान करवानी अगर तेनुं बुर बोलवानी प्रवृत्ति स्वार्थने खातर अगर प्राणांत कष्टं आवे छते पण करवी नहि. १७. कोइए करेला अपराधथी गुस्से थइ तेनो अनादर करवाने बदले शांतिथी तेनु खरे स्वरुप समजावी ठेकाणे पाडवामांज सार छे... १८. द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावने लक्षमा राखीने उचित प्रवृत्ति करतां नम्रता धारण करशे, तेज भव्यजनो स्वपर हितने साधवा समर्थ थइ शुकशे रागद्वेष अने मोहने सर्वथा तजी सर्वज्ञ सर्वदशी थइ आपणने पण एवाज-निर्मळ निदोष थवा जिनेश्वर भगवान उपदिशे छे. उक्त सूचना मुजब वर्तवा सकळ उपदेशक मुनिमंडळ तथा अन्य उत्साही श्रावक वर्ग खरा जीगरथी प्रयत्न करे तो सारो अने संगीन लाभ स्वल्प समयमा थवा संभवे छे. सुज्ञेषु किंबहुना.

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