Book Title: Jain Hitopadesh Part 2 and 3
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 415
________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. लोकिक लोकोत्तर क्षमा, दुविध कही भगवंत तेहमां लोकोत्तर क्षमा, प्रथम धर्म छे तंत. वचन धर्म नामे कह्यो, तेहना पण बहु भेद आगम वयणे जे क्षमा, तेह प्रथम अपखेद. धर्म क्षमा निज सहजथी, चंदन गंध प्रकार; निरतिचार ते जाणीये, प्रथम सूक्ष्म अतिचार. उपकारे अपकारथी, लौकिक वळी विवाग; वहु अतिचार भरी क्षमा, नहि संयमने लाग. वार कषाये क्षय करी, जे मुनि धर्म लहाय; वचन धर्म नामे क्षमा, जे वहु तिहां कहाय. मद्दव अज्जव मुत्ति तव, पंच भेद एम जाण; त्यां पण भाव नियंठने, चरम भेद प्रमाण. इह लोकादिक कामना, विण अणसंण मुख जोग; शुद्ध निर्जरा फळ कह्यो, तप शिवमुख संयोग. आश्रव द्वारने रुधिये, इंद्रिय दंड कषाय, सत्तर भेद संयम कह्यो, एहिज मोक्ष उपाय. सत्य सूत्र अविरुद्ध जे, वचन विवेक विशुद्ध आलोयण जळ शुद्धता, शौच धर्म अविरुद्ध. खग उपाय मनमे घरे, धर्मोपगरण जेह; वरजित उपधि न आदरे, भाव अकिंचन तेह. शील विषय मन वृत्ति जे, ब्रह्म तेह सुपवित्त होय अनुत्तर देवने, विषय त्यागनो चित्त.

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