Book Title: Jain Hitopadesh Part 2 and 3
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 417
________________ २०१ श्री जैनतितोपदेश भाग ३ जो. वाह्य क्रिया मत राचनो, पंचाशक अवलोय. जेहयी मारग पामीयो, तेहने सामो थाय; प्रत्यनीक ते पापीयो निश्चयें नरके जाय. सुंदर बुद्धि पणे कर्यो, सुंदर सरव न थाय; ज्ञानादिक वचने करी, मारग चाल्यो जाय. ज्ञानादिक वचने रह्या, साधे जे शीव पंथ; आतम ज्ञाने उजळो, तेहु भाव निग्रंथ. निंदक निचे नारकी, वाह्य रुचि मति अंध; आतम ज्ञाने जे रमे, तेहने तो नहिं बंध. आतम साखे धर्म जे, त्यां जनतुं शुं काम; ? जन मन रंजन धर्मनु, मूल न एक बदाम. जगमां जन छे बहु सुखी, रुचि नही को एक निज हित होय तिम कीजीये, ग्रही प्रतिज्ञा टेक. दूर रही जे विषयथी, कीजे श्रुत अभ्यास, संगति कीजे संतनी, हुइये तेहना दास. समतासें लय लाइये, धरि अध्यातम रंग: निंदा तजीये परतणी, भजीये संयम चंग. वाचक यश विजयें कही, ए मुनिने हित वात; एह भाव जे मुनि धरे, ते पामे शीव सात. इति संयम बत्तीसी संपूर्ण. ३२

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