Book Title: Jain Hitopadesh Part 2 and 3
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 403
________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. अशुद्धपणे पणसय तेसठ्ठी' भेद प्रमाण, उदय विभेदे द्रव्यना भेद अनंत कहाण; शुद्धपणे चेतनता प्रगटे जीव विभिन्न, क्षयोपशमिक असंख्य क्षायक एक अनुन्न • नामथी जीव चेतन प्रबुद्ध, क्षेत्रथी असंख्य देशी विशुद्धः द्रव्यथी स्वगुण पर्याय पिंड, नित्य एकत्व सहज अखंड. उज्जुसुए विकल्प परिणामे जीव स्वभाव, वर्तमान परिणत मय व्यक्त ग्राहक भाव; शब्दनये निज सत्ता जोतो इहतो " धर्म, शुद्ध अरुपी चेतन अणग्रहतो नव कर्म. 5 、 १८७. समभिरुढ नये निरावरणी ज्ञानादिक गुण मुख्य, क्षायक अनंत चतुष्टयी भोगी मुग्ध अलक्ष्य; एवंभूति निर्मळ सकळ स्वधर्म प्रकास, पूरण पर्याय प्रगटे पूरण शक्ति विलास. ६ इणी पेरे शुद्ध सिद्धात्मरुपी, मुक्त परशक्ति व्यक्त अरुपी; विघिरे साध्य रूपे सदा तत्त्व प्रीति, ९ ७ १० • १ पांचसो अने त्रेसठ २ संपूर्ण. ३ रुजुसूत्र नये. ४ अनुसारे ५ अभिलषतो, इच्छतो. ६ नवां. ७ अनंतज्ञान, दर्शन, चारित्र अने वीर्य.

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