Book Title: Jain Hitopadesh Part 2 and 3
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 383
________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १६७ नहिं. संयमना निर्वाह माटे जे कांइ अशन सनादिक जरूर होय ते पण शास्त्र आज्ञा मुजव सद्गुरुनी संमति लइने अदीनपणे गवेपणा करतां निर्दोप मळे तोज ग्रहण कर ए त्रीजुं महाव्रत कहुं छे.. (१३३) देव, मनुष्य के तिर्यंच संबंधी विषयभोग मन, वचन, के कायाथी सेबवा नहिं वीजाने सेवडाववा नहिं अने सेवनारने संमत थर्बु नहिं ए चोथु महावत जाणवु. (१३४) कंइ पण अल्प मूल्यवाळी के बहु मूल्यवाळी वस्तु उपर मुर्छा राखवी नहिं, संयम्ने वाधकभूत कोइ पण वस्तुनो संग्रह करवो नहि, कराववो नहि, तेमज करनारने संमत थर्बु नहि.. ए पांचमुं महाव्रत छे. (१३५) अशन, पाणी, खादिम के स्वादिम रात्री समये (सूर्य अस्त पछी अने सूर्य उदय पहेलां) सर्वथा वापरवा नहिं वपरावया नहि तेमज वापरनारने संमत थर्बु नहिं ए छठे व्रत छे. (१३६) पूर्वोक्त सर्व महाव्रतोतुं यथाविधि पालन करतां जेम रागद्वेपनी हानी थाय तेम सावधानपणे प्रवृत्ति निवृत्ति मार्ग स्वीकारी तेनो यथार्थ निर्वाह करवो, अने अन्य आत्मार्थीजनोने यथाशक्ति यथावकाश सहाय करवी ते उत्तम प्रकारनो पुरुषार्थ छे.. (१३७) सद्गुरुनुं शरण लही तेमनी पवित्र आज्ञानुसारे वर्त: नार महाशयोनो सकळ पुरुषार्थ सफळ थाय छे.

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