Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 04 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 6
________________ १६४ जैनहितैषी। [ भाग १५ को भ्रष्टचारित्र पण्डितों और धूर्त मुनियों से घबराते हैं उनकी जैनधर्मविषयक श्रद्धा, ने मलीन कर दिया है। और इससे भी हमारी रायमें बहुत ही कमज़ोर है और यही ध्वनित होता है कि हमें जैनग्रन्थों के उनकी दशा उस मनुष्य जैसी है जिसे विषयको बड़ी सावधानीके साथ, खूब अपने हाथ में प्राप्त हुए सुवर्णपर उसके , परीक्षा और समालोचनाके बाद, ग्रहण शुद्ध सुवर्ण होने का विश्वास नहीं होता करना चाहिए, क्योंकि उक्त महात्माओं- और इसलिए वह उसे तपाने आदिको की कृपासे जैनशासनका निर्मल रूप बहुत परीक्षामें देते हुए घबराता है और यही कुछ मैला हो रहा है । ऐसी हालतमें कहता है कि तपानेकी क्या जरूरत है. मालूम नहीं होता कि सेठसाहब ग्रन्थोंकी तपानेसे सोने का अपमान होता है। और परीक्षाओं और समालोचनाओंसे क्यों उसको आगमें डालनेवाला सोनेका प्रेमी इतना घबराते हैं और क्यों उसका दर्वाजा कैसे कहला सकता है ! जो लोग शुद्ध बन्द करनेकी फिकरमें हैं। क्या आप सुवर्ण के परीक्षक नहीं होते और अपने जिनसेन त्रिवर्णाचारके कर्ता जैसे प्राचार्यो- खोट मिले हुए सुवर्णको ही शुद्ध सुवर्णको 'परमपूज्य' प्राचार्य समझते हैं और की रष्टिसे देखते हैं और उसीसे प्रेम ऐसे ही प्राचार्योंकी मानरक्षाके लिए रखते हैं, उनके सुवर्ण में कभी किसी परीआपका यह सब प्रयत्न है ? यदि ऐसा है क्षक द्वारा खोट निकाले जानेपर उनकी तो हमें कहना होगा कि आप बड़ी भारी प्रायः ऐसी ही दशा हुआ करती है। ठीक भूलमें हैं । अब वह जमाना नहीं रहा यही दशा इस समय हमारे सेठसाहबकी और न लोग इतने मूर्ख हैं जो ऐसे जाली जान पड़ती है। उन्हें अपने सुवर्ण (श्रद्धाप्रन्योंको भी माननेके लिए तैयार हो स्पद साहित्य) के खोट मिश्रित करार जायँ । सहृदय विद्वत्समाजमें अब ऐसे दिये जानेका भय है और उसके संशोधन ग्रन्थलेखक कोई आदर नहीं पा सकते कराने में सुवर्णका वज़न कम हो जानेका और न स्वामी समन्तभद्र जैसे महा- डर है । इसी लिए आप ऐसे ऐसे नवीन प्रतिभाशाली और अंपूर्व मौलिक ग्रन्थोंके संदेश सुनाकर-समालोचकोंको अजैनी निर्माणकर्ता आचार्योका आदर तथा करार देकर-परीक्षाका दर्वाज़ा बन्द गौरव कभी कम हो सकता है। इसलिए कराना चाहते हैं और शायद फिरसे समालोचनाओंसे घबरानेकी ज़रूरत अन्धश्रद्धाका साम्राज्य स्थापित करनेकी नहीं। ज़रूरत है समालोचनामे कही हुई फिकरमें हैं ! किसी अन्यथा बातको प्रेमके साथ सम- आपने अपने सन्देशमें एक बात यह झानेकी, जिससे उसका स्पष्टीकरण हो भी कही है कि हमें किसी सभाके सभासके। समालोचनामोसे दोषोंका संशो- पति, किसी पत्रके सम्पादक और किसी धन और भ्रमोका पृथकरण हुआ करता स्थानके पण्डितकी बातोपर ध्यान नहीं है और उससे यथार्थ वस्तुस्थितिको देना चाहिए और न उन्हें प्रमाण मानना समझकर श्रद्धानके निर्मल बनाने में भी चाहिए; बल्कि 'गुरूणां अनुगमनं' के बहुत बड़ी सहायता मिलती है। इसलिए सिद्धान्तपर चलना चाहिए । अर्थात्, सत्यके उपासकों द्वारा सद्भावसे लिखी हमारे गुरुनोने, पूर्वाचार्योंने जो उपदेश हुई समालोचनाएँ सदा ही अभिनन्दनीय दिया है उसीके अनुसार हमें चलना होती हैं। जो लोग ऐसी समालोचनामों चाहिए । यह सामान्य सिद्धान्त कहने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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