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प्राप्त हुई है तो वह इतनी ही है कि महासभा जिस रूपमें कानपुर आई थी वह उसी रूपमें सहीसलामत वहाँसे वापस चली गई उसमें कुछ परिवर्तन होने नहीं पाया और न सुरतकी काँग्रेस जैसा दृश्य ही उपस्थित हुन । महासभा के इस अधिवेशनका जैसा कुछ शोर था, लोगोंकी जैसी कुछ आशाएँ इसपर लगी हुई थीं और इसका जैसा कुछ परिणाम निकला है, उसे देखते हुए कविका यह वाक्य याद आये बिना नहीं रहता कि" बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिलका । जो चीरा तो एक क़तरए + खून निकला ।”
'महासभा यदि जीना चाहती है और अच्छी तरह से जीना चाहती है तो उसे देशकालानुसार कुछ उदार धनकर अपनी हातको सुधारना और अपने सङ्गठनको ठीक बनाना चाहिए । नहीं तो भविष्य में उसे और भी अधिक अधिक असफलताओं का सामना करना पड़ेगा ।
जैनहितैषी ।
२- महिला परिषद् | इस परिषद्का वार्षिक अधिवेशन भी महासभा के अवसर पर कानपुर में ता० २, ३ अप्रेलको हो गया। परिषद् के सभापतिका आसन श्रीमती पडिता चन्दाबाईजी आराने ग्रहण किया था। आपके छपे हुए भाषणकी एक कापी हमें प्राप्त हुई है जिसके देखनेसे मालूम हुआ कि भाषण अच्छा हुआ है और उसमें समयानुकूल कितनी ही बातें स्त्रीजातिके लिए अच्छी कही गई हैं। ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी सूचित करते हैं कि इस परिषद्ने कन्या महाविद्यालय और महिला उदासीन मन्दिरके स्थापना सम्बन्धी दो उपयोगी प्रस्ताव पास किये हैं । अपील होने पर परिषद्के फण्डमें १५०८ll) की और
* नँद विन्द
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[ भाग १५
श्राविकाश्रम बम्बई के फण्डमें २२६१ ) रुपये की आमदनी हुई । श्राविकाश्रमके श्रव्य फण्डमें श्रीमती पण्डिता चन्दाबाई ने १००१) और श्रीमती कंकुबाई शोलापुरने २००१) रुपये प्रदान किये। जैनस्त्रीसमाजके इस बढ़ते हुए उत्साहको देखकर हमें बहुत प्रसन्नता होती है और हम उसके भावी उत्कर्ष के लिए हृदयसे भावना करते हैं । हमारी रायमें स्त्रीजाति स्वावलम्बनके द्वारा ही अपना उद्धार कर सकेगी और उसके उद्धारपर ही देश, धर्म तथा समाजका उद्धार निर्भर है ।
३ - जैनहितैषी से प्रेम
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कोल्हापुरके एक पण्डित महाशय जैन हितैषीसे बड़ा प्रेम रखते हैं । हालमें आपने इस पत्र के सहायतार्थ ३० रुपये भेजे हैं और इस तरहपर अपने प्रेमका विशेष परिचय दिया है। हम आपकी इस उदारता और गुणग्राहकताका हृदयसे अभिनन्दन करते हैं।
४ - आश्चर्य की बात ।
हमारे पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि समाजमें सत्योदय, जातिप्रबोधक और जैनहितैषीके बहिष्कारकी जो चर्चा चल रही थी वह कानपुरमें जाकर कुछ शान्त हो गई है । यद्यपि महासभा के सभापति श्रीमान् साहुस लेखचन्द्रजीने जैनहितैषीको बहिष्कार के योग्य न बतला कर सिर्फ दो पत्रोंको ही बहिष्कार के योग्य बतलाया था और शास्त्र-परिषद् के बहिष्कार की प्रेरणा की थी, परन्तु बहिसभापति पं० लालारामने तीनोंके ही Eareकी ये सब बातें सभापतियोंके भाषणों तक ही रहीं और वह भी शायद किसी खास गरजसे । महासभाकी सब्जेकृ कमेटीमें इस विषयकी चर्चा नहीं ठाई गई और न महासभा तथा शास्त्रपरिषद्के द्वारा इन पत्रोंके विरुद्ध कोई
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