Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 34
________________ जैनहितैषी। . [भाग १५ वर्मा । प्रकाशक, श्रीजैन सरस्वती भवन, "विंशत्यंगुलमानंतु त्रिंशदंगुलमायतम् । अहमदाबाद। पृष्ठ-संख्या १५० के करीब। तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्य गालयित्वा पिबेजलम् ।। मूल्य, दस पाने। तम्मिन वस्नेस्थितान् जीवान्स्थापयेजलमध्यत यह इस नामकी गुजराती पुस्तकका एवं कृत्वा पिबेत्तोयं स याति परमां गतिम् ।। हिन्दी अनुवाद है। मूल पुस्तक भी इस इन श्लोकों में यह बतलाया है कि समय हमारे सामने मौजूद है। उसे श्री- २० अंगल चौड़े और ३० अंगुल लम्बे यशोविजय जैनग्रन्थमालाके व्यवस्थापक बाग करके उसमें पानी छानमण्डलने भावनगरसे प्रकाशित किया कर गोरः .. .. और उस वस्त्रमें स्थित है। मूल्य पुस्तक पर लिखा नहीं। हाँ, जायों को स्थापित कर देना उसकी एक हजार प्रतियाँ दोसी त्रिभु- चाहिए। इन छानकर जो वनदास ताराचन्दकी ओरसे बिना मूल्य पीता है ६ १० कम होता है।" वितरण की गई हैं। यह बिल पाई और इस पुस्तकमे जीवादि नवपदार्थ, इसमें जैन और दयानत्व पंचास्तिकाय, षड़द्रव्य, सम्यग्दर्शनादि- भरा हुश्रा है मन भारतके मोक्षमार्ग,गुणस्थान,अध्यात्म, जैनाचार, किस अध्याय भाग क हैं। न्यायपरिभाषा, स्याद्वाद, सप्तभंगी, नय पुस्तकमे एक र निज पद्य हरिभद्रऔर जैन दृष्टिकी उदारता, इतने विषयो- सूरिके नामसे रद्द किया गया हैका सामान्य रूपसे संक्षिप्त परिचय दिया पया व्रतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिवतः गया है । पुस्तक आम तौरपर अच्छी अगोरस व्रतो नोत्रे तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम्।। और उपयोगी है। इसके 'जैनाचार' यह पद्य वास्तवमें खामिसमन्तभद्रके प्रकरणमें अजैन ग्रन्थोसे जो तुलनात्मक प्राप्तमीमांसा ग्रन्थका है और वहाँ 'वस्तु' वाक्य दिये हैं. उनसे पस्तककी उपयो- की जगह 'तत्वं पद दिया हश्रा है। हरिगिता अनेक अंशोंमें बढ़ गई है। परन्तु भद्रसूरिने अपने 'शास्त्रावार्तासमुच्चय' ऐसे कितने ही वाक्योंके सम्बन्धमें यह ग्रन्थमें इसे उद्धृत किया था और "अन्येत्रुटि भी पाई जाती है कि पुस्तकमें उनका स्वाहुः" इस वाक्यके द्वारा अपने ऐसा पूरा पता नहीं दिया। यह नहीं लिखा कि करनेको सूचित भी कर दिया था । वे उल्लिखित ग्रन्थके कौनसे अध्यायमें संवत् १६६४ में, भावनगरसे हरिभद्रसूरि और किस पद्य नम्बर पर स्थित हैं। कृत ग्रन्थमालामें जो ग्रन्थ प्रकाशित हुआ अच्छा होता, यदि ऐसा कर दिया जाता। उसमें भी 'वस्तु' की जगह 'तत्वं' पद ही हमारी रायमें अब भी मुनि न्यायविजय- दिया हुआ है । मुनि न्यायविजयजीने जीको ऐसे श्लोकोके पूरे पतेका एक परि- 'आप्तमीमांसा' को ज़रूर देखा शिष्ट पुस्तकमें लगा देना चाहिए और या ऐसी हालतमें उन्हें इस पद्यको उसी दूसरे संस्करणमें ऐसे पद्योंके नीचे ही रूपमें स्वामी समन्तभद्र अथवा प्राप्तउनका पूरा पता दे देना चाहिए । जल मीमांसाके नामसे ही उद्धृत करना छानकर पीनेके सम्बन्धमें जो श्लोक चाहिए था। अस्तु; हिन्दी और गुजराती. उत्तरमीमांसा और महाभारतके नामसे, की दोनों पुस्तकें छपाई, सफाई तथा विना पतेके, उद्धृत किये गये हैं उनमेंसे कागजकी दृष्टि से भी अच्छी हैं और पढ़ने महाभारतवाले श्लोक इस प्रकार हैं- तथा संग्रह किये जाने के योग्य हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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