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नयचक और देवसेनसार ७–सोनीजीने इस बातको सिद्ध आपत्ति नहीं है कि देवसेनसूरिने जिस किया है कि श्लोकवार्तिककी अपेक्षा नयचक्रके नष्ट हो जानेका उल्लेख किया देवसेनसूरिके नयचक्रमें नयोंका कथन है, संभव है कि उसीके पढ़ने की सिफाविस्तारसे लिखा गया है। इस बातको रिश श्लोकवार्तिकमें की गई हो और वह हम मान लेते हैं और अपनी भूलको सुधार किसी दिगम्बराचार्यका ही बनाया हुभा लेते हैं; परन्तु इससे फिर भी यह सिद्ध हो । परन्तु फिर भी इस विषयमें कोई नहीं होता है कि देवसेनसूरिके इसी बात सर्वथा निश्चित रूपसे नहीं कही नयचक्रके पढ़नेकी सिफारिश श्लोकवा. जा सकती है। र्तिकमें की गई है। पं० वंशीधरजी शास्त्री- E-सिद्धसेनसूरिके सम्बन्धमें सोनी.. के इस कथनके मानने में भी हमें कोई जीने, पं० वंशीधरजीने और पं० राम
र प्रसादजीने जो अनेक आक्षेप किये हैं, विद्वानोके ग्रन्थोंसे उधृत किये गये हैं और सोनीजीने त्रिवर्णाचारों तथा संहिताओंको मी प्रमाण माना है। उनके इस समय हम उनका उत्तर नहीं देना लिए और दूर जानेकी जरूरत ही क्या है ? उन्हें जिनसेन चाहते। इसके पहले कि उनके विषयमें त्रिवर्णाचार और भद्रबाहुसंहिताके परीक्षालेखोंको ही कुछ लिखा जाय, हम पण्डित महाशयोंसे देखना चाहिए। उनके देखने से मालूम हो जायगा कि यह प्रार्थना करते हैं कि वे पहले स्वयं ही इन ग्रन्थोंमें विवेकविलास (श्वे.), योगशास्त्र (श्वे०) सिद्धसेनहरिके सम्मतितर्क, न्यायावतार मुहूर्त चिन्तामणि, पीयूषधारा, याज्ञवल्क्यस्मृति, मिताक्षरा, और त्रिशंकासमूहको एक बार अच्छी प्राचारादर्श, विष्णुपुराण, वामनपुराण, मनुस्मृति, पराशरस्मृति. अत्रिस्मति आपस्तम्भ गद्यसत्र बहत्संहिता. तरह पढ़कर निश्चय कर ल कि उनकी बृहत्पाराशरीहोरा भादि कितने अजैन और जैनाभास रचनाओमें कोई बात, कोई सिद्धान्त ग्रन्थोंके वाक्योंको उठाकर रस्ता गया है और उन्हें अपने दिगम्बर सम्प्रदायके विरुद्ध तो नहीं है? प्रतिपाद्य विषयका एक अंग बनानेके लिए कितना अधिक और यदि है तो उसे किसी श्वेताम्बरी पसन्द किया गया है। कितनी ही जगह तो साफ तौरसे
विद्वान्ने पीछेसे तो नहीं घुसेड़ दिया अजैन ग्रन्थों को देखनेकी प्रेरणा की गई है। यथा
है ? सोनीजीको सन्देह है कि शायद वे "एतेच सतवैदेहिकचाण्डालमागध क्षत्रायोगवाः षट् प्रतिलोम जाः एतेषां च वृत्तयः ‘ौशनसे मानवे
। पहले श्वेताम्बर रहे हों और पीछे दिग
पहल द्रष्टभ्याः ।" (ग्रन्थपरीक्षा प्रथम भाग पृ. ७५) म्बरी हो गये हो। इसलिए यह भी निश्चय _ कितने ही वाक्योंके साथ 'इतिविशानेश्वरः' 'इत्यं- कर लेना चाहिए कि इनमेंसे कौन कौन गिराः, 'प्रचेताः' ऐसे अजैनाचार्योके नाम भी लगे हुए ग्रन्थ श्वेताम्बरी अवस्थाके हैं और कौन है। ऐसी हालतमें जो लोग सर्वथा यह समझते हैं कि दिगम्बर अवस्थाके। पण्डित महाशयोंके दिगम्बर आचायौंने अजैन तथा जैनाभास भाचार्योके
द्वारा इन सब बातोंके प्रकट हो चुकनेपर वाक्यों को प्रमाण मानकर उनका उल्लेख अपने ग्रन्थों में नहीं किया, यह उनकी बड़ी भूल है और उससे ऐसा
__ ही हमें उनके आक्षेपोंका समाधान करने है कि उनका जनसाहित्य विषयक अध्ययन में सुभीता होगा। हम यह कह देना भी अभी बहुत कम है और जो कुछ है भी वह तुलनात्मक उचित समझते हैं कि इन प्रन्थों के पढ़नेपद्धतिसे नहीं किया गया। ऐसी ही हालत जैनाभासोंके में जो परिश्रम किया जायगा वह व्यर्थ प्रमाणादि विषयकी है। सोनीजीने अभीतक उसका रहस्य न जायगा, क्योंकि ये सभी ग्रन्थ अनुनहीं समझा। वे स्वयं कितने ही जैनाभास प्राचार्यों के
पम हैं। ग्रन्थोंको बड़ी पूज्य दृष्टिसे पढ़ते, प्रणाम करते और प्रमाण मानते हैं। उन्हें पहले ऐसे प्राचार्योकी एक सची
सम्पादकीय नोट । तग्यार करनी चाहिए और फिर उससे जैनसाहित्यको पं० पन्नालालजी सोनीके जिस लेखबाँचना चाहिए।
. सम्पादक। के उत्तरमें यह लेख लिखा गया है उसे .
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