Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 29
________________ . अङ्क ६] भगवत्कुन्दकुन्द और श्रुतसागर । परन्तु हमारी समझमें भगवत्कुन्द उसका अवस्थि-तिकाल विक्रमकी प्रथम कुछ इतने पीछेके प्राचार्य नहीं हैं । जब शताब्दि है। तक शिवकुमार और शिवभृगेशवर्माके - श्रीश्रुतिसागरसूरि । एक होनेके एक दो पुष्ट प्रमाण न दिये जायें तब तक इस समयको ठीक मान लेनेकी षमाभृत या षट्पाहुड़के टीकाकार इच्छा नहीं होती। तोरणाचार्य कुन्दकुन्दके आचार्य श्रुतसागर बहुश्रुत विद्वान थे। अन्वयमें थे, अतएव यह नहीं कहा जा इस टीकासे और यशस्तिलक-चन्द्रिकासकता कि वे उनके १५० वर्ष बाद ही हुए टीकासे मालूम होता है कि वे कलिकालहोंगे। तीन सौ चार सौ वर्ष या इससे भी सर्वज्ञ, कलिकाल गौतमस्वामी, उभवअधिक पहले हो सकते हैं। भाषाकविचक्रवर्ती आदि महती पदवियों इस भूमिकाका कम्पोज हो चुकनेपर से अलंकृत थे। उन्होंने 'नवनवति' (88) हमें मालूम हुआ कि पंचास्तिकायके महावादियोको पराजित किया था! अगरेजी टीकाकार प्रो० ए० चक्रवर्ती वे मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ औरबलामायनार एम० ए०, एल० टी० ने भग त्कारगणके प्राचार्य और विधानन्दि वत्कुन्दकुन्दके समयके सम्बन्धमें एक भट्टारकके शिष्य थे। उनकी गुरुपरम्परा विस्तृत लेख लिखा है । उसमें उन्होंने इस प्रकार थी-पानन्दि-देवेन्द्रकीर्तिप्रो० पाठकके मतका विरोध करते हुए विद्यानन्दि। यह सिद्ध किया है कि शिवकुमार महा ___ परन्तु विद्यानन्दि भट्टारकके पट्टपर, राज कदम्बवंशी शिवमृगेशवर्मा नहीं, जान पड़ता है, उनकी स्थापना नहीं हुई किन्तु पल्लववंशी शिवस्कन्दवर्मा होने थी। क्योंकि विद्यानन्दिके बाद की गुरुचाहिएँ । स्कन्द, कुमार और कार्तिकेय परम्परा इस प्रकार मिलती है-विद्याषडाननके नामान्तर हैं। अतएव शिव नन्दि-मल्लिभूषण-लक्ष्मीचन्द्र । . स्कन्द और शिवकुमार दोनों निस्सन्देह स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकन्दजीके एक हो सकते हैं । पल्लववंशी राजाओंकी ग्रन्थभण्डारमें पं० पाशाधरके महाभिषेक राजधानी काञ्चीपुर या वर्तमान काँजी. नामक ग्रन्थकी टीका है। उसके अन्तमें वरम् थी। विद्या और कलाओंके लिए इस प्रकार लिखा है:यह स्थान बहुत ही प्रसिद्ध था। दूर दूरके "श्रीविद्यानन्दिगुरोर्बुद्धिगुरोः विद्वान् और कवि यहाँके दरबारमें आते पादपंकजभ्रमरः । थे। धार्मिक वादविवाद भी वहाँ होते श्रीश्रुतसागर इति देशव्रती थे । पल्लव राजा जैनी या जैनधर्मके तिलकष्टीकते स्मेदं ॥ आश्रयदाता थे, इसके भी प्रमाण मिलते इति ब्रह्मश्रीश्रुतसागरकता हैं। उनकी दरबारी भाषा भी शायद महाभिषेकटीका समाप्ता ॥ प्राकृत थी । 'मायिडाबोली' नामका श्रीरस्तु लेखकपाठकयोः । सुप्रसिद्ध अन्य उसी समयका बना दुमा है और प्राकृतमें है। प्राचार्य शुभं भवतु ॥ श्री ॥ कुन्दकुन्द द्रविड देशके थे, इसके अनेक संवत् १५८२ वर्षे चैत्रमासे शुक्लपक्षे प्रमाण है। अतएव उनका शिष्य शिव- पंचम्यां तिथौ रवी श्रीआदिजिन चैत्याकुमार यही शिवस्कन्दवर्मा होगा और लये श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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