Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 27
________________ भगवत्कुन्दकुन्द और श्रुतसागर । १८५ उनका न्योता. स्वीकार करना ही उचित चय दिया गया है, उसे हम उपयोगी जान पड़ा। समझकर यहाँ उद्धृत किये देते हैं। ___ कानपुरकी स्वागतकारिणी समिति -सम्पादक की सेवा और अतिथि-सत्कारकी जितनी भगवत्कुन्दकुन्द ।। सराहना की जाय,थोड़ी है। उनका प्रबन्ध दिगम्बर जैन सम्प्रदायमें प्राचार्य ऐसा था जैसा अबतक महासभाके किसी कुन्दकुन्द सबसे प्रसिद्ध और सबसे भी अधिवेशनमें न हुआ होगा। इतना अधिक पूज्य आचार्य गिने जाते हैं। बड़ा विशाल बगीचा, इतना विशाल पिछले अधिकांश प्राचार्योने आपको भवन (जिसमें श्री देवाधिदेवकी प्रतिमा उन्हींके अन्वय या पानायका बतलाया विराजमान थी), इतना साफ़ सुथरा नये । है। उनकी रचना जैनसाहित्य भरमें कपड़ेका बना हुआ विशाल सभामण्डप, अपनी तुलना नहीं रखती। रथयात्राका ऐसा स्वच्छ दृश्य, सेवा- अबसे लगभग ६ वर्ष पहले हम उनके समितिका रात्रि भर "वन्देमातरम" की सम्बन्धमें एक विस्तृत लेख प्रकाशित पुकारपर पहरा, इतने अच्छे और सुन कर चुके हैं ।* वे द्रविड़ देशके 'कोएड. प्रद डेरे, मकान, धर्मशाला आदि सबका कुण्ड' नामक स्थानके रहनेवाले थे और प्रवन्ध ऐसा था कि इतनी सब उत्तमो. इस कारण 'कोण्डकुण्ड' नामसे प्रसिद्ध त्तम बातोंका समुदाय इस अधिवेशनसे थे। 'कोण्डकुण्ड, का ही श्रतिमधुर पहले शायद ही कहीं हुआ हो। संस्कृतरूप'कुन्दकुन्द' हो गया है। 'एलामहासमाकी शेष कार्यवाही तो और चार्य के नामसे भी ये प्रसिद्ध थे। तामिल समाचारपत्रों में प्रकाशित होगी और हो भाषाके सुप्रसिद्ध महाकाव्य 'कुरल' के रही है, किन्तु यह कच्चा चिट्ठा जैन- विषयमें महाराजा कालेज विजयानगरम. हितैषीके वास्ते उसके सम्पादककी के इतिहासाध्यापक श्रीयुत एम० ए० प्रार्थनापर लिखा गया है। रामस्वामी श्रायंगरने लिखा है कि "जैनिलखनऊ १८-४-२१ योके मतसे उक्त ग्रन्थ 'एलाचार्य' नामक जैनाचार्यकी रचना है और तामिल काव्य भगवत्कुन्दकुन्द और 'नीलकेशी' के टीकाकार समयदिवाकर श्रुतसागर । नामक जैनमुनि कुरलको अपना पूज्य ग्रन्थ बतलाते हैं। * इससे आश्चर्य नहीं माणिकचन्द जैन-ग्रन्थ-मालाका १७ कि करलके रचयिता भगवत्कुन्दकुन्द ही वाँ ग्रन्थ 'षट्प्राभृतादि संग्रह' हालमें ही नोकर पलाचार्यने इसे रचकर प्रकाशित हुआ है। उसमें कुन्दकुन्द अपने एक शिष्यको इसलिए दे दिया स्वामीके षट्प्राभृत, रयणसार, बारह था कि वह मदुराके कविसङ्घमें जाकर अनुवेक्खा, लिंगप्राभृत और शीलप्राभृत पेश करे। ये पाँच ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। इनमेसे नन्दिसबकी गुर्वावलीमें लिखा है पहला श्रीश्रुतसागराचार्यकृत संस्कृत कि भगवत्कुन्दकुन्दको वि० संवत् ४६ में टीका सहित और शेष सब संस्कृतच्छाया प्राचार्यपद मिला और १०१ में उनका सहित हैं। इस ग्रन्थकी भूमिकामें भग- . चित्कुन्दकुन्द और श्रुतसागरका जो परि.. • देखो जैनहितैषी भाग १०, अंक ६-७ । ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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