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जैनहितैषी।
. [भाग १५ वर्गवास हुआ। तामिल देशके विद्वानोंने स चैतद्विषये श्रीमान् कुरल काव्यका रचना-काल भी ईसाकी _ . शामलीग्राममाश्रितः ।। पहली शताब्दि निश्चित किया है। यदि
निराकृततमोऽरातिः सचमच ही वह इन्हीं एलाचार्यका बनाया
स्थापयन् सत्पथे जनान् । दुना है, तो पट्टावलीके समयके साथ
स्वतेजोद्योतितक्षौणि. उसका रचनाकाल मिल जाता है। ___हमने अपने पूर्वोल्लिखित लेख में भग
___ श्चण्ड चिरित्र यो बभौ ॥ वत्कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी तीसरी
तस्याभू-पुरुएनन्दी तु शताब्दि निश्चित किया था।
शिष्यो विद्वानगणाग्रणीः । __उसके बाद जैनसिद्धान्त-प्रकाशिनी तच्छिष्यश्च प्रभाचन्द्रस्तस्येयं संसाद्वारा प्रकाशित 'समयप्राभृत' की
वसातः कृता ।। भूमिकामें दक्षिणके सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ इन दोनों लेखोंका अभिप्राय यह है प्रो०के०बी० पाठकका यह मत प्रकाशित कि कोएड कोन्दान्वयके तोरणाचार्य नामहुमा है कि कुन्दकुन्दाचार्य वि० संवत के मुनि इस देश में शाल्मली नामक ग्राम५५ के लगभग हुए हैं। अपने मतकी में आकर रहे। उनके शिष्य पुष्पनन्दि पुष्टिमें उन्होंने लिखा है कि जिस समय और पुष्पनन्दिके शिष्य प्रभाचन्द्र हुए। राष्ट्रक्ट-वंशीय राजा तृतीय गोविन्द पाठक महोदयका कथन है कि राज्य करता था उस समय, शक संवत पिछला ताम्रपत्र जब शक संवत् ७१६ का ७२४ का लिखा हुआ एक ताम्रपत्र मिला है तो प्रभाचन्द्र के दादा-गुरु तोरणाचार्य है। उसमें निम्नलिखित पद दिये हुए हैं:- शक संवत् ६०० के लगभग रहे होंगे और कोण्डकोन्दान्वयोदारो गणोऽभवतः। तोरणाचार्य कुन्दकुन्दान्वयमें हुए हैंतदैतद्विषयविख्यातं शाल्मलीग्राममावसन् ॥
अतएव कुन्दकुन्दका समय उनसे १५० बासीद(?)तोरणाचार्यस्तपःफलषरिग्रहः। .
वर्ष पूर्व अर्थात् शक संवत् ४५० के लगभग तत्रोपशमसंभूतभावनापास्तकल्मषः ॥
' मान लेने में कोई हानि नहीं है। पण्डितः पुष्पनन्दीति बभूव भुवि विश्रुतः। दामी नगरमें शक संवत् ५०० में प्राचीन
चालुक्यवंशी कीर्तिवर्म महाराजने बा. अंतेवासी मुनेस्तस्य सकलश्चन्द्रमा इव ।। कदम्बवंशका नाश किया था और इलप्रतिदिवसभववृद्धिनिरस्त
लिए इससे लगभग ५० वर्ष पूर्व कदम्बदोषो व्यपेतहृदयमलः ।
वंशी महाराज शिवमृगेशवर्म राज्य करते परिभूतचन्द्रबिम्बतच्छिष्योऽभूत्प्रभाचन्द्रः॥ थे, ऐसा निश्चित होता है। पंचास्तिकाय.
उक्त तृतीय गोविन्द महाराजके ही के कनडी-टीकाकार बालचन्द्र और समयका शक संवत् ७१६ का एक और संस्कृत-टीकाकार जयसेनाचार्यने लिखा ताम्रपत्र मिला है, जिसमें नीचे लिखे है कि यह ग्रन्थ प्राचार्य कुन्दकुन्दने शिवपच हैं:
कुमार महाराजके प्रतिबोधके लिए रचा आसीद (?) तोरणाचार्यः
था और ये शिवकुमार शिवमृगेशवर्म ही कोण्डकुन्दान्वयोद्भव।
जान पडते हैं। अतएव भगवत्कुन्दकुन्दका
समय शक संवत् ४५० (वि० ५८५) ही .देखो जैनहितैषी भाग १५ अंक १-२। सिद्ध होता है।
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