Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ जैनहितैषी। [ भाग १५ हमने देखा है और साथ ही पं० नाथू- नहीं होती और न होनी चाहिए। ऐसी रामजी प्रेमीका वह मूल लेख भी इस भाषाके लेखोंके प्रत्युत्तरमें विचारकोंकी समय हमारे सामने है जिसकी भित्ति बहुत ही कम प्रवृत्ति पाई जाती है और पर सोनीजीको अपना लेख खड़ा करना उससे बहुत कुछ हानिकी सम्भावना है। पड़ा। प्रेमीजीके लेखमें 'सम्भव' आदि हमें सोनीजीके लेखके सम्बन्धमें कुछ शब्दोंसे प्रारम्भ होनेवाले उस प्रकारके अधिक लिखनेको जरूरत नहीं है। प्रेमीसब वाक्य मौजूद हैं जिनका उल्लेख जीने स्वयं अपने इस लेख में प्रकृत विषयका उन्होंने इस लेखके शुरू में किया है। दर्शन- बहुत कुछ स्पष्टीकरण कर दिया है और सारके अन्तमें उन्होंने साफ तौरसे ग्रन्थ- जहाँ कुछ विशेष सूचित करने की जरूरत के बननेका समय वि० सं०६80 सूचित समझी, वहाँ हमने फुटनोट लगा दिये किया है । दर्शनसारकी विवेचनामें सं० हैं, और इससे हम समझते हैं कि पाठकों८०० के साथ "लगभग" शब्द लगा हुआ का बहुत कुछ समाधान हो जायगा । हाँ, है और युक्त्यनुशासनकी भूमिकामें एक बात और प्रकट कर देना जरूरी है। विद्यानन्द स्वामीका अस्तित्वविषयक वह और वह यह है कि, यद्यपि हमें अभी वाक्यं भी मौजूद है जिसे प्रेमीजीने ऊपर तक इसमें कोई सन्देह नहीं कि 'दर्शनउद्धृत किया है। साथ ही एक स्थान पर सार' ग्रन्थ वि. सं.: 880 का बना हुआ वि० सं०८६५ के साथ 'लगभग' शब्द भी है, तो भी इसमें कुछ समेह जरूर है कि लगा हुश्रा है। इन सब बातोके मौजूद यह 'नयचक्र' ग्रन्थ उन्हीं देवसेन प्रार होते हुए, हमारी रायमें, उस प्रकारका का बनाया हुआ है जो कि दर्शनसारके लेख लिखे जानेकी कुछ भी जरूरत नहीं कर्ता थे। दोनों ग्रन्थ एक ही आचार्यके थी जिसके लिखनेका सोनीजीने कष्ट बनाये हुए हैं, इस बातको बतलानेवाला उठाया है। जान पड़ता है, सोनीजीको कोई भी पुष्ट प्रमाण अभी तक किसी अभी तक इस बातका परिशान नहीं है विद्वान्की ओरसे उपस्थित नहीं किया कि ऐतिहासिक पर्यालोचन किस तरहसे गया। यह कहा जा सकता है कि 'भावहुआ करता है, वह कितना कठोर और संग्रह' के कर्ता देवसेन श्राचार्यने अपनेनिर्मम विषय है, उसमें 'सत्यदेव' की को 'विमलसेन' गणधरका शिष्य लिखा कितने शुद्ध हृदयसे उपासना की जाती है और ग्रन्थके शुरूमें महावीर भगवानहै और ऐसे लेखोका कोई भी शब्द, व्यर्थ को नमस्कार किया है। इन दोनों ग्रन्थोंन होकर, कभी कभी कितने गहरे अर्थ- के आदिमें भी 'वीरजिनेन्द्र' को नमको लिये हुए होता है। यही वजह है कि स्कार किया गया है और साथ ही उनका आप उक्त लेख के आशयको नहीं समझ 'विमलणाणं' तथा 'विमलणाण संजुत्तं' सके और न उसके 'सम्भव' 'लगभग' ऐसा विशेषण दिया गया है। आराधनाआदि महत्त्वपूर्ण शब्दोंका आपको कुछ सारका भी ऐसा ही मंगलाचरण पाया अर्थ बोध हो सका । आपके लेखसे जाता है। इससे ये चारों ग्रन्थ एक ही कषायभाव टपका पड़ता है और कितनी विद्वान्के बनाये हुए हैं। परन्तु ये सब ही जगहपर उसकी भाषा दोषपूर्ण हो बातें 'दर्शनसार और 'नयचक्र' के कर्तागई है। एक ऐतिहासिक लेखकके उत्तर- की एकता सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त में लिखे हुए लेखकी भाषा ऐसी कभी नहीं हैं। ऐसी समानताओंकी अन्यत्र भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainehbrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36