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का महत्व ऐसे स्पष्ट शब्दों में दिखलाया कि जिससे उपस्थित जनताको यह विदित हो गया कि सनातन हिन्दूधर्म, जैनधर्म केही सिद्धान्तों की नीवार खड़े किये गये हैं और खोज करनेसे प्रतीत होता है कि सार्वधर्म जैनधर्म ही है, जो स्याद्वाद नयविवक्षासे सब मतान्तरोंके भेदों और विरोधको दूर कर देता है। आपके प्रभावशाली व्याख्यानकी श्रीमान् ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी तथा अन्य ब्रह्मचारियों और पण्डित महाशयोंने प्रशंसा करते हुए समालोचना की, और "जैनधर्मकी "जय" ध्वनिके साथ सभा रातके ११ बजे के करीब विसर्जित हुई ।
दूसरे दिन दो बजे से महासभाकी कार्यवाही प्रारम्भ हुई । सभा मण्डप भरा हुआ था। महिला समाज के वास्ते जो स्थान चिक और परदे डालकर नियत किया गया था वह संकुचित था और पीछेको था, जहाँ वक्ताकी आवाज़ स्पष्ट रूपसे नहीं पहुँचती थी, इस कारण कुछ चिकोको उठाकर श्रागेकी और महिला समाज को स्थान दिया गया और वह भी सब तुरन्त ही महिलामण्डल से भर गया । मंगलाचरणके पश्चात् श्रीमान् बाबू नवलकिशोरजी वकीलने स्वागतकारिणीसमितिकी ओर से महासभाका विवरण और कानपुर के अधिवेशन के विषयमें संक्षेप रूपसे कुछ प्रस्तावनामात्र कहा । फिर श्रीमान् लाला रामस्वरूपजी सभापति स्वागत का० समितिका व्याख्यान हुआ । इस भाषण में आपने यह भी कहा कि, 'जैनसमाज आधुनिक देशपरिवर्तनों से अपनेको विलग नहीं रख सकता, बल्कि उसका कर्तव्य और अधिकार है कि अपनी आध्यात्मिकताके द्वारा संसारके अनेक कष्टोंको दूर करनेका उचित प्रबन्ध करे । जैन व्यापारी बहुधा दलाल सरीखे
जैनहितैषी ।
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[ भाग १५
हैं और इस कारण देशकी वास्तविक उन्नति नहीं कर सकते, जैन शास्त्रोका प्रकाशन तथा प्रचार शृंखलाबद्ध रीतिसे होना उचित है, शिक्षाविभाग में धन और शक्तिका अपव्यय हो रहा है, एक जैन शिक्षाका प्रबन्ध केन्द्रस्थ हो सके, दिगम्बर श्वेताम्बर समाजके झगड़ोंका निबटारा होना श्रावश्यक है; और कुप्रथा सम्बन्धी प्रस्ताव कार्यरूपमें परिणत करने का समय आ गया है" । इसके बाद चुनाव हो जानेपर सभापति श्रीमान् साहू सलेखचन्दजीका भाषण पढ़ा गया जिसमें उन्होंने कहा कि " महासभा के नामके अनुसार उसकी व्यापकता नहीं है, बल्कि खण्डेलवाल, पद्मावती पुरवाल, जैसवाल, परवार श्रादि जातीय सभाएँ अलग अलग स्थापित हो रही हैं। ये महासभा के अधीन जातीय पंचायतके रूपमें कार्य करें तो अच्छा हो । महासभा सम्बन्धी दि० जैन महाविद्यालयका कार्य सामान्य पाठशालाका सा है. इसको स्याद्वाद महाविद्यालय काशीके साथ ही मिला देना उचित है; एक ऐसे परीक्षालयकी भी आवश्यकता है जिसका सम्बन्ध समस्त दि० जैन शिक्षासंस्थाओं से हो और जिसका प्रमाणपत्र सबके लिए मान्य हो; शिल्प, विज्ञान, कृषि, वैद्यक, कला-कौशल विषयोंके सार्वजनिक शिक्षालयोंमें पढ़नेवाले श्रसमर्थ जैन छात्रोंके वास्ते छात्रवृत्तियाँ स्थापित करना जैनसमाजका कर्तव्य है; छपे जैन ग्रन्थोंके प्रचार निषेधमें जो महासभाका सम्बत् १६५३ का प्रस्ताव है, वह रद किया जाना चाहिए# जैन
* इस विषयका प्रतिपादन करते हुए आपने जो शब्द कहे थे वे इस प्रकार है
"यहाँ पर मुझे महासभा के उस प्रस्ताबका उल्लेख कर देना जरूरी है जो छापे हुए जैन ग्रन्थोंके निषेधसे सम्बन्ध रखता है। यह प्रस्ताव सम्बत १९५३ में पास हुआ था ।
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