Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ श्रङ्क ६ ] यह बिलकुल स्पष्ट है कि जब दर्शनसारमें माथुरसंघकी उत्पत्तिका समय ६५३ लिखा है तब वह उसके ३०-४० वर्ष बाद ही बना होगा। मैंने अपने 'दर्शनसार' के अन्तिम पृष्ठ पर 'भ्रमसंशोधन' शीर्षक - के नीचे इस बातका उल्लेख कर भी दिया है; परन्तु मालूम नहीं सोनीजीने ग्रन्थको कैसे पढ़ा है जो यह लिख दिया कि मैंने दर्शसारमें उसके कर्त्ताका समय सं० 808 लिखा है । नयचक्र और देवसेनसूरि । २ - श्लोकवार्तिकके कर्त्ता विद्यानन्दस्वामी किस समय हुए हैं, इसका निर्णय मैंने जैनहितैषी भाग ६ पृष्ठ ४३६-५५ में किया है और उसीका सारांश युक्त्यनुशा सनकी भूमिका में दिया गया है। उसके अनुसार विद्यानन्दस्वामीका ग्रन्थ-रचना काल वि० सं० ८४० से ८६५ के बीच निश्चित होता है । ८४० के बाद कहनेका कारण यह है कि हरिवंशपुराण में - जो वि० सं० ६४० में समाप्त हुआ है-उस समयके प्रायः सभी दाक्षिणात्य जैना नहीं बन सकते, क्योंकि इनमें से किसीके स्वीकार करनेपर छन्दमें दो मात्राएँ बढ़ जाती है। भले ही भजैन और श्रनार्थं प्राकृत में 'नवति' शब्दका सप्तम्यन्तरूप 'एवदीए' या 'वईए' बनता हो, परन्तु श्रार्य प्राकृत में उसका रूप 'ए' या 'वर' होना भी बहुत अधिक संभव है; क्योंकि भार्ष प्राकृत 'बहुल' रूपसे होती है और उसमें संपूर्ण विधियोंका विकल्प किया जाता है जैसा कि हेमचन्द्राचार्य के निम्न वाक्योंसे प्रकट है-"आर्ष प्राकृतं बहुलं भवंति । श्रर्षेहि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते ।" त्रिवि - क्रम नामके दि० जैनकषि भी इस विषय में प्रायः ऐसा ही सूचित करते हैं और भार्ष प्राकृत का कोई खास नियम ( लक्षण ) न बतलाकर सम्प्रदायको ही उसका बोधक ठहराते हैं। यथा देश्यमार्ष च रूढत्वात्स्वतन्त्रत्वाच्च भूयसा । लक्ष्म नापेचते तस्य संप्रदायोहि बोधकः ॥ इसलिए प्राकृत में उक्त 'उए' या 'एवए' रूपका होना जरा भी अप्राकृतिक नहीं मालूम होता । Jain Education International -सम्पादकं । १७१ चार्योंका स्मरण किया गया है, परन्तु उनमें विद्यानन्दका नाम नहीं है। इसके सिवा दो कारण और हैं जिनसे वे =४० के बादके ही मालूम होते हैं। एक तो, यह कि प्रसिद्ध मीमांसक विद्वान् कुमारिलभट्टका समय वि० सं० ७५७ से ८१७ तक निश्चित है और वे अकलंकदेवके समकालीन विद्वान् हैं, बल्कि श्रकलंकदेवके बाद भी कुछ समयतक जीते रहे हैं। क्योंकि उन्होंने अपने श्लोकवार्तिक में अष्टशतीके अनेक वाक्योंको उद्धृत करके उनका खण्डन किया है और अकलंकदेवके स्वर्गवास के बाद उसका प्रतिखण्डन विद्यानन्दस्वामीने अष्टसहस्रीमें किया है । दूसरे, राठौर राजा साहसतुंग या शुभतुङ्गका राज्यकाल वि० सं० ८१० से ८३२ तक है और भट्टाकलंकदेव उसकी सभा में शास्त्रार्थ करने गये थे । विद्यानन्दस्वामी अकलंकदेवके पश्चाद्वर्ती हैं, अतः उनका समय ८३२ के बाद मानना अनुचित नहीं जान पड़ता । वि० सं० ८६५ के पहले माननेका कारण यह है कि श्रादिपुराण में विद्यानन्दस्वामी ( पात्र केसरी) का स्मरण किया गया है, जिससे मालूम होता है कि उस समय उनकी खूब ख्याति हो चुकी थी । ३- परन्तु यह वि० संवत् ८६५ उनके अस्तित्वका अधिक से अधिक पिछला समय हो सकता है। इसके बाद तो उन्हें मान ही नहीं सकते । क्योंकि पूर्वोक श्रादिपुराण में चन्द्रोदयके कर्त्ता आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड में विद्यानन्दस्वामीका उल्लेख किया है । ऐसी अवस्थामें विद्यानन्दस्वामीको प्रभाचन्द्रका उल्लेख करनेवाले श्रादिपुराणसे यदि ३०-४० वर्ष पहले माना जाय, तो कुछ अयुक्त न होगा । ४ - इस तरह दर्शनसारके कर्त्ता For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36