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सकता है, यद्यपि वे आगमिक व्याख्याकारों की मन:प्रसूत कल्पनाएँ भी नहीं कहे जा सकते हैं। उदाहरण के रूप में मरूदेवी, ब्राह्मी, सुन्दरी तथा पार्श्वनाथ की परम्परा की अनेक साध्वियों से सम्बन्धित विस्तृत विवरण, जो आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में उपलब्ध हैं, वे या तो आगमों में अनुपलब्ध हैं या मात्र सकेत रूप में उपलब्ध हैं, किन्तु हम यह नहीं मान सकते है कि ये आगमिक व्याख्याकारों की मन:प्रसूत कल्पनाएँ हैं । वस्तुत: वे विलुप्त पूर्व साहित्य के ग्रन्थों से या अनुश्रुति से इन व्याख्याकारों को प्राप्त हुए हैं। अत: आगमों और आगमिक व्याख्याओं के आधार पर नारी का चित्रण करते हुए हम यह नहीं कह सकते कि केवल आगमिक व्याख्याओं के युग के सन्दर्भ हैं, अपितु उनमें एक ही साथ विभिन्न कालों के सन्दर्भ उपलब्ध हैं। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उन्हें निम्न काल खण्डों में विभाजित किया जा सकता है - 1. पूर्व युग :- ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक। 2. आगम युग :- ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर ई. सन् की पाँचवी शताब्दी तक। 3. प्राकृत आगमिक व्याख्या युग :- ईसा की पाँचवी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक। 4. संस्कृत आगमिक व्याख्या एवं पौराणिक कथा साहित्य युग :- आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक।
इसी सन्दर्भ में एक कठिनाई यह भी है कि इन परवर्ती आगमों के रूप में मान्य ग्रन्थों प्राकृत एवं संस्कृत आगमिक व्याख्याओं का काल लगभग एक सहस्राब्दी अर्थात् ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी से लेकर ईसा की बारहवीं शताब्दी तक व्याप्त है। पुन: कालविशेष में भी जैन विचारकों का नारी के सन्दर्भ में समान दृष्टिकोण नहीं हैं। प्रथम तो उत्तर और दक्षिण भारत की सामाजिक परिस्थितियों की भिन्नता के कारण और दूसरे श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं के भेद के कारण इस युग के जैन आचार्यों का दृष्टिकोण नारी के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न रहा है। जहाँ उत्तर भारत के यापनीय एवं श्वेताम्बर जैन आचार्य नारी के सम्बन्ध में अपेक्षाकृत उदार दृष्टिकोण रखते हैं, वहीं दक्षिण भारत के दिगम्बर जैन आचार्यों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत अनुदार प्रतीत होता है। इसके लिए अचेलता का आग्रह और देशकालगत परिस्थितियाँ दोनों ही उत्तरदायी रही हैं, अत: आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार पर नारी की स्थिति का चित्रण करते समय हमें बहुत ही सावधानीपूर्वक तथ्यों का विश्लेषण करना होगा। पुन: आगमिक व्याख्या साहित्य और जैन पौराणिक कथा साहित्य दोनों में ही नारी के सम्बन्ध में जो
जैन धर्म में नारी की भूमिका :2
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