Book Title: Jain Dharm Vikas Book 01 Ank 05
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 8
________________ ૧૫૪ જૈન ધર્મ વિકાસ ॥ आदीनाथ चरित्र पद्य ॥ ( जैनाचार्य जयसिंहसूरी तरफथी मळेलु ) प्रणम् विद्या माय, निजकर पुस्तक धारणिम् । कंठ बिराजो आय, गाउं चरित्र भगवान् का ॥ नमू बोध दातार, सहज कृपालु गुरुवर । हृदय चरण रजधार. ज्ञानोद्यान विचरण करूं। में हूं मूर्ख गंवार. बिनुपग गिरी चढ़ना चहत । लीजो मुझे उबार, गिर न पडूं अधबीच में ॥ . नमहं प्रथम अरिहंत पद भाई, ते प्रभाव सद्बुद्धि आइ। कर्म रुप अरि मर्दनकारी, भवसागर के है भय हारी ॥ भवदुख मेटन मार्ग बतावे, तीर्थकर हो मोक्ष सिधावे । प्रथम तिथंकर रिषभकुमारा, तिनकर चरित्र विदित संसारा॥ सदामोक्षदायक हे भाइ, महापुरुष के चरित्र सुहाई । यहि कारण गाऊं चितलाई, प्रथम तिथंकर कीर्ती भाई ॥ प्रथम गाउ पहिला भव प्यारा, जेहिमें सम्यक्त्व भया उजारा ॥ सागर भूधर रत्न सुहावा, नद नदियां हिमधर मन भावा । जम्बूद्वीप नाम अति सुन्दर, बीच स्वर्णमय चमकत भूधर । ऊंच लक्ष योजन अति भारी, तापर समतल भूमि पियारी ॥ चालिस योजन है विस्तारा, पश्चिम विदेह क्षेत्र है प्यारा । क्षेत्र भुमंडल भूषण कारी, नगर बसा एक सुन्दर भारी ॥ प्रतिष्ठित पुर तेहि नाम सुहावा, नगर सु सुन्दर अति मन भावा । प्रसन्नचंद्र नृप तेहि नगर, राज्य करत अति नीति । धर्म कर्म में रहत नित, करत प्रजासन प्रीति ॥ बसहिं ऋधि ते नृप घर आइ, देव राज सम शोभा छाई । धन साह तेहि नगर मझारी, पर उपकार करत अति भारी ॥ धर्म करत धन भया अपारा, तासे हो सब कर उपकारा । पर्वत अचल रहे नद माहीं, तेसे साहु अचल सत माहीं ।

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