Book Title: Jain Dharm Vikas Book 01 Ank 05
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 15
________________ શાસ્ત્રસમ્મત માનવધર્મ ઓર મૂર્તિપૂજા ૧૬૧ किंतु उसके साथ विपुल ऋद्धि, दिव्यशरीर कांति, निर्मल यशराशि, दीर्घायुष्य एवं पौद्गलिक प्रधानसुखोत्पादक पदार्थो का संयोग भी आवश्यक है। उक्त सर्व सुख साधनों की प्राप्तिं भी अनायास सब के लिये सुलभ नहीं है जिन्होंने अपरिमित पुण्यराशि का संचय किया है उनको ही ये प्राप्त हो सकते हैं। सुख साधनों के प्राप्त हो जाने मात्र से ही मनुष्य की आवश्यकतापूर्ति नहीं हो जाती किंतु मनुष्य जीवन के साथ २ मनुष्यत्व को समझना भी अनिवार्य है कारण जब तक उसका ज्ञान न होगा मनुष्य जीवन ही व्यर्थ हो जायगा। जब तक इस जीवन की श्रेष्ठता, दुर्लभता एवं उपादेयता ज्ञात नहीं होती है तबतक उसकी उपेक्षा होना स्वाभाविक ही है। जिस प्रकार मूर्ती को रत्न की प्राप्ति हो जाय तो वह उसकी कुछ भी कीमत नहीं करता है कारण उसे उसकी उपादेयता ज्ञात नहीं । उसी मूर्ख को जब रत्न की कीमत मालूम पड़जाती है तो वह अनेक प्रयत्न द्वारा उसकी रक्षा करता है। ऐसे ही जब मानवदेह का माहात्म्य ज्ञात हो जाता है तब उससे लाभ प्राप्ति की अभिलाषा जागृत होती है। मनुष्यत्व हमारा मूल धन है। इस मूल धन की जितनी अधिक मात्रा में सुरक्षा एवं व्यवस्था की जायगी भविष्य में उतना ही अधिक लाभ होगा। जिसका मूल सुरक्षित है उसे कहीं भी किसी प्रकार का भय नहीं है यहां तक कि वह अपने मूल धन के बलपर अन्य द्रव्य वृद्धि भी करता कलर जिसने मूल धन को भी बर्बाद कर दिया उसकी स्थिति के सिंधस्प्रेस कठिनाई रहती है कहा भी है किः माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएण जीवाणं, णरगतिरिक्खत्तणं धुवं ।। अर्थात्-मनुष्यत्व मूल द्रव्य है और मूलद्रव्य से देवगति प्राप्त करना यह लाभ है । जिसने लाभ कमाना तो दूर रहा किंतु मूल मनुष्यत्व को भी रवो दिया वह निश्चय ही नरक एवं तिर्यंच गति में परिभ्रमण कर दुःखोपार्जन करता रहता है। वास्ते मूल धन को रक्षा सर्व प्रथम आवश्यक है। इसकी सुरक्षा होने पर ही हमें कर्त्तव्याकर्तव्य, धर्माधर्म, अनिष्टानिष्ट, हिताहित, गुणावगुण एवं मार्गामार्ग का भान हो सकता है। सब प्रकार से सुखपूर्ण अहीनपंचेन्द्रियत्व के साथ साथ दिव्य मानव शरीर प्राप्त भी हो जाय तथापि धर्म के बिना उसकी शोभा नहीं है। जिस प्रकार दही की शोभा मक्खन से, फूल की शोभा सुगंध से, तिल्ली की शोभा तेल से, शरीर की शोभा प्राणों से, सूर्य की शोभा किरणों से, गुण की शोभा गुणो से, दीपक की शोभा प्रकाश से, साधु की शोभा चारित्र से, उद्यान की शोभा विविध फल फूलों से, वन की शोभा वृक्षों की हरीतिमा से, सभा की शोभा विद्वद् मानव मंडली से, आचार्य की शोभा शिष्य परिवार से प्रजा की

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