Book Title: Jain Dharm Vikas Book 01 Ank 05
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 16
________________ १६२ જૈનધર્મ વિકાસ शोभा राजा से, मंदिर की शोभा मूर्ति से, एवं कवि की शोभा कवित्व से होती है उसी प्रकार मनुष्य जीवन की शोभा भी धर्म से ही होती है। यदि दही में से मक्खन अलग कर दिया जाय, फूल में से सुगंधी निकाल दी जाय, तिल्ली में से तेल पृथक् कर दिया जाय, शरीर में से प्राण चले जाय, सूर्य से किरणे अलग हो जाय, गुण गुणी को छोड दें, साधु से चारित्र अलग हो जाय, वन में वृक्ष न रहें, उद्यान में फल फूल न हो, सभा मंडप में विद्धज्जनों का अभाव हो, शिष्य मंडली में आचार्य देव न रहें, प्रजा में राजा न हो, मंदिर से मूर्ति अलग कर दी जाय तथा कवि में से कवित्व शक्ति और प्रतिभा निकाल दी जाय तो उक्त सकल पदार्थ सारतत्व विहीन, निराधार, शुष्क, निर्गुण, अनुपादेय, भारभूत अनादरणीय एवं अमान्य हो जावेंगे। इसी प्रकार मानव जीवन में से धर्म तत्व को निकाल दिया जाय तो मानवता का अंशमात्र भी अवशिष्ट न रहेगा। धर्मशून्य मनुष्यदेह उस कीटखाद्य सत्व हीन चने के समान है जो कि बाह्याकृति से तो रम्य एवं सुन्दर प्रतीत होता है किंतु आंतरिक परिस्थिति पोपलीलामयी होने से विचित्र ही रहती है। शास्त्र वेत्ताओं का तो यह कथन है कि धर्म भोवना विहीन मानव हृदय को पदपर आपत्ति, दुःख और वेदनाओं का अनुभव करना पडता है। उसकी अवस्था उस गाडीवान् के समान होती है जो कि सीधे, सरल, सुमार्ग को छोड कर विकट दुर्गम कुमार्ग की ओर जाने से अक्ष (धुरा) भंग होने पर सोच करता है कहा भी है किः जहा सागडिओ जाणं, समं हिचा महापहं । विसमं मग्गमोइनो, अक्खे भग्गम्मि सोयह ॥ एवं धम्मं विउम्म, अहम्मं पडिवजिया। बाले मच्चुमुहं पत्ते, अक्खे भग्गे व सोयह ॥ अर्थात् जैसे गाडीवान अपनी धुरा के टूट जाने पर वन के दुर्गम मार्ग में बैठ कर अपने किये हुए कृत्य पर पश्चात्ताप कर दुःखी होता है उसी प्रकार अक्ष जन सुबोध एवं सरल उत्तम धर्मके सुमार्गको छोड़कर अधर्म के दुर्गम मार्ग की ओर प्रवृत्त तो हो जाते हैं किंतु कराल काल के मर्मभेदी प्रहार लगने के समय वे शोक करते हैं। उनके उस शोक का विशेष कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है कारण स्पष्ट ही है:-"अब पछताए क्या हुए चिड़ियां चुग गई खेत" दुःख या विपत्ति के आने पर जो प्रभु स्मरण, धर्म प्रवृत्ति एवं यम नियमादि किये जाते हैं वे एकान्त स्वार्थजन्य एवं पर प्रेरणा से किये जाते हैं अतः ऐसे यम, नियम, तपादि का उतना उत्तम फल नहीं होता जितना कि आवश्यक है। वही धर्म नियम आत्माभ्युदय का हेतु भूत हो सकता है जिसमे कि निःस्वार्थवृत्ति का प्राधान्य हो । धर्म का स्वार्थ से संबंध नहीं। स्वार्थियों से

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