Book Title: Jain Dharm Vikas Book 01 Ank 05
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ १६० જૈન ધર્મ વિકાસ शास्त्रसम्मत मानवधर्म और मूर्तिपूजा ( लेखक )-पूज्य मु, श्री. प्रमोदविजयजी म. ( पन्नालालजा) मानवजीवन पूर्वजन्म की दीर्घकालीन घोर तपश्चर्या का ही मधुर एवं रम्य फल है। इस देव दुर्लभ फलरत्न की जितनी रक्षा और जितनी कीमत की जाय भविष्य में उतना ही उपयोगी सिद्ध होता है। श्रमण भगवान् महावीर ने तो इसे दुर्लभ ही नहीं बतलाया किंतु इन्द्र, नरेन्द्र एवं सुरेन्द्र वंदनीय भी कहा है । मोक्ष धाम के आवृत्त कपाटों के उद्घाटन का अखंड सौभाग्य भी इसी जोवन को प्राप्त है। प्रथम तो मनुष्यायु का बंधना ही कठिन है क्योंकि इसके बंधन हेतु नानागुणों का उपार्जन करना पड़ता है। शास्त्रकारों ने इसके बंधन के चार कारण बतलाये हैं __ "चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुयाउय बंधति तंजहाः-पगइभद्दयाए, पगइविणो . ययाए साणुकोसयाए अमच्छरिययाए त्ति ।। वेमायाहिं सिक्खाहिं, जे नरा गिहिसुव्वया। उति माणुसं जोणिं, कम्मसच्चा हु पाणिणो॥ . ' 'अर्थात् प्रकृति भद्रिकता, प्रकृति विनोतता, दयालुता एवं अमात्सर्य भाव ही मनुष्य भव के बंधन के कारण हैं। वाचकमुख्य उमास्वात्याचार्य ने भी अपने तत्वार्थाधिगम सूत्र में ऐसे ही चार कारण बतलाये हैं:-"अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य" अर्थात् आरंभ की न्यूनता, परिग्रह की अल्पता, स्वभाव में मृदुता एवं प्रकृति में सरलता ही मनुष्य भव प्राप्त करा सकती है। कदाचित् बहुत काल के भगीरथ प्रयत्न से एवं शुभ कर्मों की प्रधानता से निम्न गाथानुसार मानव भव प्राप्त भी हो जाय तथापि तत्संबंधित अन्य आवश्यक सामग्रियों की प्राप्ति तो अति दुष्कर ही है कहा भी है किः कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुवी कयाइ उ । जीवा सोहिमणुपत्ता. आययति मणुस्सयं ।। माणुस्सं विग्गहं लधुं, सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोचा पडिवजंति, तवं खंतिमहिंसयं ॥ तात्पर्य यह कि अनंतानुबंधी आदि कषायीं के क्रमशः नष्ट होने पर जीव यदा कदा शुद्धि प्राप्त कर मनुष्य देह को प्राप्त भी करले तथापि उस धर्म का श्रवण करना बहुत कठिन है जिसके द्वारा क्षमा, दया, सत्यादि गुणों को प्राप्ति होती है। केवल मनुष्य का औदारिक शरीर ही सुखकारी नहीं होता है

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28