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શાસ્ત્રસમ્મત માનવધર્મ ઔર મૂર્તિપૂજા वह कोसों दूर रहता है। कबीरदासजी ने भी इसी आशय को स्पष्ट करते हुए कहा है किः
दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय । वास्तव में धर्म का संबंध मानव हृदय के साथ होने से सुख दुःख, हर्ष शोक एवं उन्नति अवनति में उसकी एक ही अवस्था रहनी चाहिये। धर्म मनुष्य का देव दुर्लभ वैभव है। उसमें सार्वभौम सत्ताधारी व्यक्ति को भी अपने दिव्य धर्म प्रताप से चल विचल करने की शक्ति विद्यमान रहती है। आत्मोन्नति एवं मानसिक शांति का साधकतम (उपादान) कारण भी यदि धर्म ही मामा जाय तो किंचित् भी अत्युक्ति न होगी। शरीरजन्य क्लेशों एवं मानसजन्य दुःखों के उपशमन का भार धर्म पर ही है।
धर्म जीवों का प्राण है साथ ही अखिल चराचर रूप जगत् में अखंड शांति स्थापक दूत भी है। धार्मिक जीवन रहित मानव शरीरभारभूत और ' कर्मसंचय का निमित्त माना गया है। धर्म के बिना वह एकांगसुंदर भले ही दृष्टिगोचर हो सकता है किंतु सर्वांग सुंदर कदापि नहीं हो सकता है। __कोई भी व्यक्ति कितना ही उच्च अभ्यासक हो, उच्च सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता हो, नाना शास्त्र विशारद हो, अनेक भाषाओं का ज्ञाता हो एवं विविध साहित्य और ग्रंथों का अनुभव रखता हो किंतु यदि वह धर्ममर्म से या धर्मक्रिया प्रवृत्ति से अनभिज्ञ है तो उसकी सारी विद्वत्ता. निष्फल ही है। जिस प्रकार अंकों के बिना शून्य का कोइ भी मूल्य नहीं उसी प्रकार धर्ममर्म को पहिचाने बिना मनुष्य का अक्षरज्ञान भी कौड़ी की कीमत का नहीं है और न वह थोथा शब्दज्ञान आत्म कल्याण में सहायक ही हो सकता है, कहा भी है कि:
भणंता अकरता य, बंधमोक्खपइनिणो। वायावीरियमेत्तेणं, समासासंति अप्पयं ॥ ण चित्ता तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासणं ।।
विसन्ना पावकम्मेहिं बाला पंडिय माणिणो ॥ अनुष्ठान प्रवृत्ति के विना शाब्दिक ज्ञान की निरर्थकता बताते हुए एक संस्कृत नीतिकार का भी कथन है किः
अपूर्ण