Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/३१ माता-पिता और पत्नि के हृदय के मोहजाल को तोड़ दिया और उज्ज्वल भावनाओं सहित सच्चा मुनिवेश धारण करने हेतु श्री ब्रह्मगुलालजी वन की ओर चले गये।
___ जंगल में जाकर उन्होंने अपने सभी वस्त्र उतार दिये और दिगम्बर होकर एक स्वच्छ शिला के ऊपर पद्मासन होकर बैठ गये, फिर उन्होंने अपने हृदय की उत्कृष्ट भावना पूर्वक श्री पंचपरमेष्ठी भगवंतों को नमस्कार करके, स्वयं साधु दीक्षा ग्रहण की....और आत्मध्यान में लीन हो गये। - संसार-नाटक के अनेक स्वाँगों को धारण करने वाला कलाविद् एक क्षण में आत्मकला का उपासक बन गया....अब उनका हृदय आत्मज्ञान और शांत रस से भरपूर था, उन्हें न कोई इच्छा थी और न कोई कामना थी। संसार-नाटक का स्वाँग पूरा करके अब उन्होंने मुक्तिसाधक मुनिदशा का स्वाँग शुरु किया था। रौद्ररस रूप से भाव-परिवर्तन करके आत्मा को शांतरस रूप किया था। धन्य है ! भाव-परिवर्तन की कला !!
(७) प्रभात का सुंदर समय है। महाराज अपने सिंहासन पर विराजमान है....सभासद भी बैठे हैं....इसी समय जिन्होंने प्राणीमात्र के ऊपर समभाव धारण किया है और जो शांत रस में मग्न हैं ऐसे साधु ब्रह्मगुलालजी राजभवन की ओर आते दिखे। राजा ने दूर से ही साधु के पवित्र वेष को देखा, तुरन्त ही उठकर साधु को आमंत्रित किया। उन्हें उच्च आसन पर विराजमान किया और धर्मोपदेश सुनने की इच्छा व्यक्त की। मुनिराज ब्रह्मगुलालजी ने पवित्र आत्मतत्त्व का विवेचन किया।
“राजन् ! आत्मतत्त्व में अनंत शक्तियाँ हैं, क्षणमात्र में अपने भावों का परिवर्तन करके पामर से परमात्मा बन जाने की तुममें ताकत है, इसलिए शोकभाव छोड़कर शांत भाव प्रगट करो।"
मुनिराज ब्रह्मगुलालजी का ऐसा दिव्य उपदेश सुनकर महाराज के