Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 73
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/७१ अहो ! इस संसार में राग, पुण्य और उनका फल सब कुछ अध्रुव और अशरण है.... । जहाँ पुण्य भी जीव को शरणरूप नहीं हो सकता, वहाँ अन्य की क्या बात ?" इस प्रकार वैराग्यचित्तपूर्वक पाँचों पाण्डव, द्रोपदी तथा माता कुन्ती और सुभद्रा आदि सभी नेमिनाथ प्रभु के समवशरण में बैठे हैं। सबका चित्त असार-संसार से थक गया है और जिनदीक्षा हेतु तत्पर हैं। तभी युधिष्ठिर अत्यन्त वैराग्यपूर्वक प्रभु से विनती करते हैं - ___ "हे देव ! हम पाँचों भाई एवं द्रोपदी अपने पूर्वभव जानने को इच्छुक हैं, तब अचिन्त्य वैभवयुक्त प्रभु की दिव्यवाणी में उनके पूर्वभव की कथा इस प्रकार व्यक्त हुई - “युधिष्ठिर-भीम-अर्जुन ये तीनों भाई पूर्वभव में चंपापुरी में ब्राह्मण के पुत्र थे - १. सोमदत्त, २. सोमिल और ३. सोमभूति । इसी प्रकार नकुल, सहदेव और द्रोपदी-ये तीनों पूर्वभव में अग्निभूति ब्राह्मण की पुत्रियाँ थीं – १. धनश्री २. मित्रश्री और ३. नागश्री। इन तीनों कन्याओं का विवाह उन तीनों भाईयों के साथ हुआ था अर्थात् युधिष्ठिर और नकुल - ये दोनों भाई तथा भीम और सहदेव - ये दोनों भाई पूर्वभव में पति-पत्नि थे। इसी प्रकार अर्जुन और द्रौपदी भी पूर्वभव में पति-पत्नि थे। एक बार उन तीनों भाईयों के आंगन में धर्मरुचि नामक मुनिराज पधारे.... सबने आदरपूर्वक उन्हें आहारदान दिया.... परन्तु उस समय नागश्री (द्रौपदी के जीव) ने मुनिराज का अनादर किया.... और अयोग्य आहार दिया.... जिससे मुनिराज का समाधिपूर्वक मरण हुआ, परन्तु इस प्रसंग को जानकर तीनों भाईयों को अत्यन्त दुख हुआ - “अरे ! रे !! हमारे आंगन में जिनमुनिराज का अनादर" - ऐसा विचारकर उन्होंने वैराग्य धारण करके जिनदीक्षा ले ली और आत्मसाधना

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