Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/७९ बीच में जैसे यह लोक बिना आलंबन के रहता है, वैसे ही लोक में मेरा आत्मा भी बिना किसी आलंबन के है, इसलिए परावलंबी बुद्धि छोड़कर मैं अपने आत्मा का ही अवलम्बन लूँ - जिससे मेरी लोक यात्रा पूरी हो और लोक का सर्वोत्कृष्ट स्थान मुझे प्राप्त हो।
कमर के ऊपर हाथ रखकर और पैर फैलाकर खड़े हुए पुरुष के समान इस लोक का आकार है – इस प्रकार इस लोक में जीव सम्यग्दर्शन और समभाव के बिना ही अनंतकाल से चार गति में घूम रहा है।
इसलिए हे आत्मा ! तू उर्ध्व-मध्य और अधोलोक का विचित्र स्वरूप विचार कर सम्पूर्ण लोक में सर्वोत्कृष्ट महिमावंत ऐसे अपने आत्मा में स्थिर हो, जिससे तुम्हारा लोक-भ्रमण मिटे और स्थिर सिद्धदशा प्रगटे। लोक का एक भी प्रदेश आगे-पीछे नहीं होता, उस लोक में जीव-अजीव द्रव्यों की संख्या में एक को भी बढ़ाया-घटाया नहीं जा सकता।
(११) बोधिदुर्लभ भावना - जीव को मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल, निरोग शरीर, दीर्घ आयुष्य, जैनशासन, सत्संग और जिनवाणी का श्रवण – ये सब मिलना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। भाग्यवश ये सब मिलने पर भी धर्मबुद्धि जागना और भी दुर्लभ है। ये बुद्धि जागने पर भी अंतर में सम्यक्त्व का परिणमन होना परम दुर्लभ है - अपूर्व है। सम्यक्त्व होने पर मुनिधर्म को धारण करना दुर्लभ है और मुनिधर्म धारण करने के बाद स्वरूप में स्थिर होकर केवलज्ञान प्रगट करना वह सबसे अधिक दुर्लभ है।
___ इसलिए हे आत्मा ! तुम इस महा दुर्लभ योग को प्राप्त कर अब अति अपूर्व आत्मबोध के लिए प्रयत्नशील होओ। वह परम दुर्लभ होने पर भी श्रीगुरु के प्रताप से, आत्मरुचि के बल से सहज सुलभ हो जाती है। सम्यक्त्वादिक रत्नत्रय प्रगट करना ही सच्चा लाभ है, उसी में सच्चा सुख है। रत्नत्रय प्रगट करके जीव की नौका भव से पार हो जाती है। परम दुर्लभ सम्यक्त्व रूपी बाण के बिना ही जीव-योद्धा संसार में घूम रहा है। जिस यौद्धा के पास कमान हो, परन्तु बाण न हो तो वह लक्ष्य को नहीं वेध सकता, उसी प्रकार जीवयोद्धा के पास व्रत और ज्ञान का उघारूपी