Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/७८
सम्यग्दर्शन पूर्वक आत्मध्यान से ही संवर होता है। प्रथम तो सम्यग्दर्शन मात्र से ही मिथ्यात्वादि अनंत संसार का संवर हो जाता है। संवर होने के बाद यह आत्मा संसार में नहीं भटकती, उसे मोक्ष का मार्ग मिल जाता है। इसलिए हे आत्मा ! अब तू संसार की झंझटों को छोड़कर उस पुनीत संवर का आश्रय कर ।
मिथ्यात्व आदिक भाव को, चिरकाल भाया जीव ने । सम्यक्त्व आदिक भाव रे, भाया नहीं कभी जीव ने ॥
अहो ! भवनाश करने वाली अपूर्व आत्मभावना इसी क्षण भाओ । उपयोग स्वरूप आत्मा को अनुभव में लेकर समस्त परभावों को नष्ट करो । चारित्रमोह की सेना का भी क्षपक श्रेणी आरोहण कर सर्वथा नाश करो ।
( ९ ) निर्जरा भावना - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनके द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है । जिस प्रकार धधकती अग्नि में कढ़ाई का सभी पानी शोषित हो जाता है, उसी प्रकार उग्र आत्मभावना के प्रताप से विकार जल जाता है । निर्जरा दो प्रकार की होती है - सविपाक और अविपाक । जिसमें सविपाक निर्जरा तो सभी जीवों को होती रहती है, मोक्ष की कारण रूप अविपाक निर्जरा सम्यग्दृष्टि, व्रतधारी तथा मुनिराजों को ही होती है और वही आत्मा को कार्यकारी है । इसलिए हे आत्मा ! तू आत्मध्यान की उग्रता के द्वारा अविपाक निर्जरा को धारण कर, जिससे केवलज्ञानी होने में तुझे देर न लगे । सम्यग्दर्शन होते ही असंख्यात गुनी निर्जरा शुरू हो जाती है और मुनि होने के बाद ध्यान के द्वारा उग्र पुरुषार्थ करके अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान हो जाता है। परमात्मस्वभाव का लक्ष्य करनेवाला सम्यग्दर्शन भी धीरे-धीरे आठ कर्मों को जलाकर खाक कर देता है, तब उस परमात्म स्वरूप आत्मा के ध्यान की एकाग्रतारूप शुद्धोपयोग से कर्म का नाश होने में कितनी देर लगेगी ?
इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे । इससे ही बन तू तृप्त तुझको, सुख अहो ! उत्तम मिले ॥
(१०) लोक भावना - अनंत जीव- अजीव के समूह रूप इस लोक का कोई बनाने वाला नहीं है अर्थात् ये तो अनादि सिद्ध अकृत्रिम निरालंबी है । कोई इसका नाश नहीं कर सकता और कोई इसे बना नहीं सकता । अनंत अलोक के