Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/७७ मेरा सुशाश्वत एक दर्शन-ज्ञान लक्षण जीव है। बाकी सभी संयोग लक्षण, भाव मुझसे बाह्य हैं।
(५) अन्यत्व भावना - पानी और दूध के समान शरीर और आत्मा का मेल दिखता है, परन्तु जैसे सचमुच दूध और पानी भिन्न-भिन्न हैं, वैसे ही वास्तव में आत्मा और शरीर भी भिन्न-भिन्न हैं। हे आत्मा ! तुमने शरीर और आत्मा को एक ही समझा, वह तुम्हारी भूल है। तुम्हारा तो ज्ञायकभाव है, चरित्रभाव है, रत्नत्रय स्वरूप आत्मा ही तुम्हारा है; इसलिए किसी अन्य के आश्रय से शांति होगी - ऐसी आशा छोड़कर तुम अपने एकत्व स्वरूप में ही रहो। तुम्हारी एकता ही तुम्हारी शोभा है, अन्य से तुम्हारी शोभा नहीं; अत: अन्य से भिन्न अनन्य स्वरूप आत्मा की भावना भाओ।
(६) अशुचि भावना - यह शरीर तो अशुचिता का पिटारा है, हाड़माँस-खून-मवाद आदि से बना हुआ है। उसके नवद्वारों में से घृणाजनक मैल बहता रहता है, चन्दनादि उत्तम से उत्तम वस्तुएँ भी इस शरीर के संबंध होते ही दूषित हो जाती हैं, तो फिर अरे आत्मा ! तुम ऐसे अशुचि के स्थान रूप शरीर से मोह और प्रेम क्यों करते हो ? ये तुम्हारी महान भूल है कि तुम इस मलिन देह में मूर्छित रहते हो। कहाँ तो तुम्हारा निर्मल स्वरूप और कहाँ इसका मलिन स्वभाव। इसलिए शरीर को हेय समझ कर तुम शीघ्र उससे मोह छोड़ो तथा रागादि कषायों को भी पवित्र चेतन से विरुद्ध अपवित्र जानकर छोड़ो और अपनी पवित्र ज्ञान गंगा में स्नान करके पावन हो, इसी में तुम्हारा कल्याण है।
(७) आस्रव भावना - नदी में छेदवाली नाव जिस प्रकार पानी भरने से डूब जाती है, वैसे ही मोहरूपी छिद्र द्वारा आत्मा में कर्म आते हैं और उसे संसारसमुद्र में डुबा देते हैं। उन कर्मों के आने का मुख्य कारण मिथ्यात्व है। उसके बाद कषाय का छोटा कण भी जीव को कर्म का आस्रव कराता है ? इसलिए हे जीव! तुम चैतन्य में लीनता के द्वारा वीतरागी होकर सर्व आस्रवों को रोको और निराम्रवी हो जाओ-ऐसा करने से ही तुम्हारी आत्मारूपी-नौका इस भव-समुद्र से पार होगी और तुम्हारा कल्याण हो जायेगा।
(८) संवर भावना - कर्म के आस्रव को रोकना, वह संवर है।