Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/७५ इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा के चिन्तन के द्वारा महान उपसर्ग विजयी पाण्डव मुनिराजों ने ध्यानरूपी अग्नि प्रकट की। बाहर में शरीर जल रहा था और अन्दर में ध्यानाग्नि के द्वारा कर्म भस्म हो रहे थे। उस समय वे पाण्डव मुनिवर बारह वैराग्य भावना में तत्पर थे
भवचक्र में भ्रमते कभी, भायी नहीं जो भावना। भवनाश करने के लिए, भाऊँ अलौकिक भावना ॥
(१) अनित्य भावना – संसार में जीवन क्षणभंगुर है, बादलों के समान देखते-देखते विलीन हो जाता है। धन, दौलत, मकान, कुटुम्ब, शरीर आदि जो भी दिखाई देते हैं, वे सब नश्वर हैं। भोगोपभोग अनित्य हैं, वे किसी के साथ स्थिर नहीं रहते। महान पुण्यशाली चक्रवर्ती को भी जब तक पुण्य का उदय रहता है, तब तक ही वह सामग्री रहती है। पुण्य समाप्त होने पर वह भी रफूचक्कर हो जाती है। जगत में एक अपनी आत्मा ही ऐसी वस्तु है जो कि सदा शाश्वत रहती है, जिसका कभी वियोग नहीं होता। इसलिए हे आत्मा ! तू समस्त बाह्य वस्तुओं से ममत्व हटाकर स्व में ही स्थिर हो.... ये ही वस्तु तुम्हारी है।
लक्ष्मी-शरीर, सुख-दुख अथवा शत्रु-मित्र जन हों अरे। ।। ये कोई भी ध्रुव नहीं, ध्रुव उपयोग अत्मिक जीव है।
भरत चक्रवर्ती जैसा छह खण्ड का अधिपति भी जब नित्य नहीं रहा तो . फिर अरे जीव ! तू किससे स्नेह करता है ? किसे अपना समझता है ? अपने
चैतन्यस्वरूप आत्मा के अलावा दूसरी वस्तु को अपना समझना, वह सिर्फ इस जीव की मूर्खता है ! इसलिए हे जीव ! ऐसे व्यर्थ विकल्प जाल में मत पड़, तू तो आत्मचिन्तन में ही उपयोग को लगा, उसी में जीवन की सार्थकता है।
(२) अशरण भावना - जिस प्रकार भूखे सिंह के पंजे में पड़े हुए हिरण की कोई रक्षा नहीं कर सकता, उसी प्रकार मृत्यु के मुख में पड़े हुए प्राणी की कोई रक्षा नहीं कर सकता। कोई ऐसा कहे कि मैं तो लोहे के मकान में रहकर शस्त्रादि एवं धनादि से जीवन की रक्षा कर लूँगा अथवा कोई औषधि-मंत्र-तंत्र से जीवन को बचा लूँगा, तो उसका यह कथन केवल बकवास ही है।
वास्तव में जिसकी आयु पूरी हो गई हो, उसकी कोई रक्षा कर ही नहीं