Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 38
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/३६ अपना असली स्वरूप मान बैठा, परन्तु नहीं रे नहीं। ये कोई भी स्वाँग मेरा स्वरूप नहीं है। ये तो सभी क्षणिक विभाव के स्वाँग थे। वे तो छूट गये अब मैं अपने सिद्धपदरूपी अविनाशी स्वाभाविक स्वाँग के लिए उद्यम करूँ" - ऐसा विचार कर राजा भी अपने भावों का सम्यक् परिवर्तन करके मुनि हुए और सिद्धपद के साधक बने। इस प्रकार, ब्रह्मगुलाल कलाकार, राजकुमार और राजा – इन तीनों का जीवन सम्यक् भावपरिवर्तन का अद्भुत दृष्टान्त है। इसी प्रकार हे पाठको ! तुम भी अपने भावों में सम्यक् परिवर्तन करो और आत्मा को मोक्षसाधना में लगाओ। पुराणों में भी जहाँ देखो वहीं पवित्र पुरुषों के जीवन-चरित्रों में भाव-परिवर्तन का ही उपदेश दिया जाता है। हे जीव ! तुम्हारे भावों में परिवर्तन की शक्ति है, क्योंकि आत्मा परिवर्तनशील है, सर्वथा कूटस्थ नहीं, इसलिए महापुरुषों के उदाहरण द्वारा अनादि से सेवन किए मिथ्या भावों का परिवर्तन करके सम्यक्त्व प्रकट कर....अनादि संसार में मिथ्यात्व के अनंत प्रकार के अनन्त स्वाँग धारण किये। अब तो सम्यक्त्व का अपूर्व स्वाँग सजाओ। देखो ! भगवान महावीर का जीवन ! वे भी एक समय सिंह के स्वाँग में थे और हिरण को मारकर माँस खा रहे थे। वे अपने भावों का परिवर्तन करके रौद्रभाव में से शांतभाव रूप होकर, त्रिलोकपूज्य तीर्थंकर हुए। इस प्रकार के उदाहरणों से हे जीव ! तू भी अपने भावों का सम्यक् भाव परिवर्तन कर। मिथ्यात्व से जीव स्वयं ही अपना शत्रु है और सम्यक्त्व से जीव स्वयं ही अपना मित्र है। जीव स्वयं अपने ही सम्यक् या मिथ्याभावों के अनुसार सुखी या दुःखी होता है, कोई दूसरा उसे सुखी-दुःखी नहीं करता। - छहढाला प्रवचन भाग-१, पृष्ठ ५९

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