Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/४६ गया है - इसमें क्या रहस्य है। यह सब जानने के लिए हम अत्यन्त आतुर हो रहे हैं।"
श्री ज्ञानसागर मुनिराज ने मणि के गुमने और मिलने की कहानी विस्तार के साथ बताकर इस रहस्य का उद्घाटन किया और कहा -
___ “राजन् ! अब उसने अपनी आत्मा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी तीन रत्नों को जड़ दिया है - इन तीनों चैतन्य मणियों के प्रकाश से उसका आत्मा जगमगा कर रहा है और उसका मोहांधकार नष्ट हो गया है। अब वह जड़-पत्थरों का कलाकार न होकर चैतन्य मणियों का कलाकार बन गया है।"
कलाकार की रोमांचक कथा सुनकर राजा और प्रजा अत्यन्त विस्मित और हर्षित हुए....सबने एक स्वर में कहा – “रत्नत्रय कलाकार की.... जय".... “अंगारक कलाकार की.... जय"....। श्री ज्ञानसागर मुनि महाराज की जय".... इत्यादि प्रकार से जय-जयकार करके आकाश गुंजायमान कर दिया....।
तत्पश्चात् राजा ने उसी पद्मरागमणि के द्वारा अंगारक मुनि के चरणों की पूजा-अर्चना की....कलाकार ने जिस मणि को वापस कर दिया था, वही मणि फिर से उनके ही चरणों को जगमगा रहा था।
____ यह अत्यन्त आनन्द का दृश्य देखकर मोर भी आनन्द की टंकार लगाने लगा और आनन्द से अपने पंखों को फैलाकर नाचने लगा।
धन्य हैं ऐसे अंगारक मुनिराज धन्य हैं, उनकी सदा जय हो।
वास्तव में शरीर का छेदन होना यह तो कोई दुःख नहीं है, परन्तु अज्ञानी को देह में ही अपना सर्वस्व दिखता है, देह से अलग अपना कोई अस्तित्व ही उसे नहीं दिखता, इस कारण देहबुद्धि से वह दु:खी है।
- छहढाला प्रवचन भाग-१, पृष्ठ ७१