Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/५८ सुवर्णरत्नमयी द्वारिका नगरी सारी भड़भड़ जल रही है। घर-घर में आग लगी है, राजमहल भस्म हो गया है।
उस समय दोनों भाई एक-दूसरे के कन्धे मिलाकर रोने लगे....और दक्षिण देश की ओर चले गये। (देखो, इस पुण्य-संयोग की दशा !)
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उधर द्वारिका नगरी में उनके पिता वसुदेव आदि अनेक यादव और उनकी रानियाँ प्रायोपगमन संन्यास धारण करके देव लोक में गये। बलदेव के कितने ही पुत्र जो तद्भव मोक्षगमी थे तथा संयम धारण करने का जिनका भाव था, उनको तो देव नेमिनाथ भगवान के पास ले गये। अनेक यादव और उनकी रानियाँ, जो धर्मध्यान की धारक थीं और जिनका अत:करण सम्यग्दर्शन के द्वारा शुद्ध था, उन्होंने प्रायोपगमनसंन्यास धारण कर लिया। अत: अग्नि का घोर उपसर्ग भी आर्त-रौद्र ध्यान का कारण नहीं बना, धर्मध्यान पूर्वक देह छोड़कर वे स्वर्ग में गये ।
देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत और प्राकृतिक ये चार प्रकार के उपसर्ग हैं। वे मिथ्यादृष्टि जीव को आर्त्त-रौद्र ध्यान के कारण हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव को खोटे भाव के कारण नहीं होते। जो सच्चे जिनधर्मी हैं, वे मरण को प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु कायर नहीं होते। किसी भी प्रकार