Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/५५ __ “हे साधु! रक्षा करो !! क्रोध को शान्त करो !!! तप का मूल क्षमा है, इसलिए क्रोध तजकर इस नगरी की रक्षा करो। क्रोध तो मोक्ष के साधन रूप तप को क्षणमात्र में जला सकता है, इसलिए क्रोध को जीत कर क्षमा करो। हे साधु ! बालकों की अविवेकी चेष्टा के लिए हमें क्षमा करो और हमारे ऊपर प्रसन्न होओ" -
इस प्रकार श्रीकृष्ण और बलदेव दोनों भाइयों ने प्रार्थना की, परन्तु क्रोधी द्वीपायन ने तो द्वारिका नगरी को जला डालने का निश्चय कर ही लिया था, दो अंगुली ऊँची करके उन्होंने यह सूचना की -
"मात्र तुम दोनों भाई ही बचोगे, दूसरा कोई नहीं।"
उस समय दोनों भाई जान गये कि बस, अब द्वारिका में सभी के नाश का काल आ गया है। दोनों भाई खेदखिन्न होकर द्वारिका आ गये
और अब क्या करें इसकी चिन्ता करने लगे। उधर मिथ्यादृष्टि द्वीपायन भयंकर क्रोधरूप अग्नि के द्वारा द्वारिकापुरी को भस्म करने लगे। देवों के द्वारा रची द्वारिका नगरी एकाएक भड़भड़ जलने लगी। मेरे निर्दोष होने पर भी मुझे इन लोगों ने मारा, इसलिए अब मैं इन पापियों सहित पूरी नगरी को ही भस्म कर डालूँगा। ऐसे आर्तध्यान सहित तेजस लेश्या से उस नगर को जलाने लगे। नगरी में चारों ओर उत्पात मच गया। घर-घर में सभी को भय से रोमांच होने लगा।
पिछली रात में नगरी में लोगों ने भयंकर सपने भी देखे थे। उधर क्रोधी द्वीपायन, मनुष्यों और पशुओं से भरी उस द्वारिका नगरी को जलाने लगे। अग्नि में अनेक प्राणी जलने लगे। तब वे जले प्राणी अत्यंत करुण विलाप करने लगे....कोई हमें बचाओ रे बचाओ ! ऐसा करुण चीत्कार श्रीकृष्ण की नगरी में कभी नहीं हुआ। बाल, वृद्ध, स्त्री, पशु और पक्षी सभी अग्नि में जलने लगे.... देवों के द्वारा रची द्वारिका नगरी छह मास तक आग में जलती रही और सर्वथा नष्ट हो गयी। विशेष बात यह है कि