Book Title: Jain Bhajan Muktavali
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 27
________________ न्यामत विलास धन दे तन को राखिये प्यारे, तन दे रखेये लाज | धनदे तनंद लाज दे प्यारे, एक धरम के काज ॥ यही मुनिजन कह गए सारे || अमो० || २ || यही धर्म का सार है प्यारे, कर नित पर उपकार । तज स्वार्थ परमार्थ को प्यारे, भजले वारंवार ॥ न्यायमत हो भवदधि पारे || अमो० ॥ ३ ॥ ३७ चाल नई तर्ज-मजा देते हैं क्या यार तेरे पाल घुंबर वाले ॥ जरा हो जावो हुशियार ओ. मुसाफिर जाने वाले । मुसाफिर जानेवाले ओ मुसाफिर जानेवाले ॥ टेक ॥ चोरों की फिरती है डार, क्रोध लोभ माया मदचार | लूटेंगे सुखसार, तेरे तोड़ ज्ञान के ताले || जरा० ॥ १ ॥ कर्मों का फैला है जाल, कुमता चपला चंचल चाल | करके हाल बेहाल तुझको घोर नरक में डाले || जरा ॥ २ ॥ वहाँ न्यामत कोई नहीं यार, मात पिता साजन परिवार । भाई और सुतनार, यारी का दम भरने वाले || जरा० ॥३॥ ३८ चाल - हाय मुझे दरदे जिगर ने सताया ॥ २३ हाय मुझे छलके कुमति ने सताया । सुख सम्पति लेई, दुख दुरगत देई || fuen

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