Book Title: Jain Bhajan Muktavali
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 34
________________ - - - - - - न्यामत विलास तू भवस्वरूा शिवस्वरूप ब्रह्म रूप है। विषयों के संग से तेरी होती कदर नहीं ॥३॥ चाहे तो कर्म काट तू परमात्मा बने । अफसोस कभी इसपै तू करता नजर नहीं ॥ ४ ॥ निज शक्ति को पहिचान समझ अब तो न्यामत । | आलस में पड़े रहने से होता गुजर नहीं ॥५॥ - - - चाल-सारठ अधिक सरूप रूप का दिया न जागा मान ॥ - - जिया रागभाव दुखदाई राग को मन से हटाओ जी। मन से हटाओ जी, राग को मन से हटाओजी ॥ टेक ॥ है राग निमत संसार करम का मूल बतायोजी । जो चाहो हो परमानन्द भाव बैराग बनावोजी ॥१॥ यह राग चिकट समजान भूल इस रस्ते न जावोजी। लगजावेगी कर्मों की धूल ज्ञानदामन को बचावोजी ।।२।। अब पर परणति को छोड़ ध्यान आपे में जमावोजी। . न्यामत तजराग अरु देष सदा आतम गुणगावोजी ।।३।। - - - - - चालनाटक को ॥ मुस्लमाँ होने को अय काया में तय्यार नहीं। . धर्म के बदले में जां देने में कुछ मार नहीं (गजल ) - -- कर्म फलदाता कोई और तो बनता है नहीं। आप फल देता है यले सो वह टलता है नहीं । टेक॥ - -- - -

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