Book Title: Jain Bhajan Muktavali
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 37
________________ - - - - am-samara - - - - - - - न्यामत विलास गर कर्म कोई मोक्ष में वाक़ी नहीं रहता। तौ लौटने का जर्या भी हमको वताइये ॥ २ ॥ फिर कुछ हजार वर्ष की क्यों कैद लगाई। इसमें प्रमाण क्या है हमें भी जिताइये ॥३॥ कहते हो लौटने पै रहे ज्ञान मुक्ति का। . दुनिया में कोई एक तो हमको दिखाइये ॥ ४ ॥ जब कमे काट आत्मा परमात्मा बने। करमों में फंसे फिर न यकीं इस पै लाइये ।। ५॥ परमाण नयमे सिद्ध फिर आना नहीं होता। न्यामत जरा अज्ञान का परदा हटाइये ॥६॥ - .. -- - - - - . "चाल-चर्खा लेदे कार के हिलाने को ॥ .. शरणा लेले करम के जलाने को, जलानेको शिवजानेको ! टेक चारोंही मंगल चारों ही उत्तम,चारों का शरणा सुख पानेको १ अरहंत सिद्ध और मुनी जैनवाणी, कारणहै शिवपद दिलानेकोर सम्यक्त नय्यामें चलबैठ न्यामत,मोह सांगरसे पारहो जानेको ३ - - - - - - ३ main - - - - - - - --- -- - - - - - - चाल---नई ॥ अमोलक है यह रतन प्यारे ॥ (पंजावी) अमोलक जैन धरम प्यारे, भूल विषयों में मतहारे ॥ टेक ।। धर्म पिता. माता धर्म प्यारे, धर्म सँगाती जान। धर्म देत संसार सुख प्यारे, देत स्वर्ग निर्वाण ॥ धर्म विन कोई नहीं प्यारे ।। अमोलक० ॥१॥ तनजाते धन दीजिए प्यारे, तनदे लाज सँवार । काम पड़े. जव धर्म का प्यारे, तीनों दीजो वार। धाम से विघ्न र सारे || अमोलक० ॥२॥ - - - - - - - - la

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