Book Title: Jain Agam me Darshan Author(s): Mangalpragyashreeji Samni Publisher: Jain Vishva BharatiPage 12
________________ किसी भी आगम को दार्शनिक ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता किन्तु जैन दर्शन का स्रोत वही है। आगम के विशाल साहित्य में दार्शनिक चिन्तन किस रूप में मिलता है, उसका वैशिष्ट्य क्या है, किन पहलुओं पर विचार किया गया है, यह जानने की जिज्ञासा होना भी स्वाभाविक है। बीसवीं शताब्दी में कतिपय विदेशी विद्वानों और कतिपय इस देश के विद्वानों ने प्रयास किया कि आगम में दार्शनिक चिन्तन के बिखरे सूत्रों की परख की जाए। प्रयास सराहनीय था, किन्तु यह संभव न था कि समग्रता में उसकी पहचान की जा सके और गम्भीरता से उसका अध्ययन भी प्रस्तुत किया जा सके । जितना किया जा सका, आरम्भ की दृष्टि से वह महत्त्वपूर्ण है। समणी मंगलप्रज्ञा जी ने इसे शोध का विषय बनाकर अपनी पुस्तक “जैन आगम में दर्शन' में इस दृष्टि से और इस दिशा में सर्वथा महत्त्वपूर्ण और स्तुत्य प्रयास किया है। यह संभवन था कि सभी आगमों को एक प्रबन्ध में समेटा जा सके, इसलिए इन्होंने आगम साहित्य के पाँच अंगों-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग और भगवती - को अपने अध्ययन का विषय बनाया। अध्ययन की गम्भीरता की दृष्टि से ऐसा करना आवश्यक था। इस कार्य में समणी मंगलप्रज्ञाजी ने सफलता प्राप्त की है। अपने गम्भीर अध्ययन और कौशल से आगमों के दार्शनिक चिन्तन और वैशिष्ट्य को परखा है तथा बिखरे और प्रच्छन्न दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन किया है जो सामान्यतः दृष्टिपथ में नही आ पाते। __ इस पुस्तक में सात अध्याय हैं-विषय-प्रवेश, आगम साहित्य की रूपरेखा, तत्त्व मीमांसा, आत्म-मीमांसा, आचार-मीमांसा और आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शनजो दार्शनिक दृष्टि से दर्शन की अपेक्षाओं को पूरा करते हैं। इस पुस्तक में समणी मंगलप्रज्ञाजी ने गम्भीर अध्ययन, दार्शनिक विवेचन की क्षमता और सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है जो गुरुदेव तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ के सान्निध्य तथा शिक्षण का प्रतिफल है, साथ ही समणी जी की अपनी प्रतिभा का भी परिचायक है। इस कार्य से न केवल उन पाँच आगमों के दार्शनिक स्वरूप पर प्रकाश पड़ा है बल्कि इससे अन्य आगमों का इस दृष्टि से अध्ययन का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है। इस कार्य के लिए समणी जी को जितना भी साधुवाद अर्पित किया जाए, कम ही पड़ेगा। __ भविष्य में जिस प्रकार के तुलनात्मक विवेचन की अपेक्षा है उसके लिए इन्होंने कतिपय संकेत भी दिए हैं। इससे इनकी सृजनात्मक दृष्टि सुस्पष्ट होती है। मैं स्वयं भी इससे काफी लाभान्वित हुआ हूँ, इसलिए समणी मंगलप्रज्ञा जी के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। 19 फरवरी, 2003 राय अश्विनी कुमार प्रोफेसर एवं पूर्व संकायाध्यक्ष संस्कृत विभाग मगध विश्वविद्यालय, बोधगया (बिहार) (iv) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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