Book Title: Jain Agam me Darshan Author(s): Mangalpragyashreeji Samni Publisher: Jain Vishva BharatiPage 10
________________ जैन विश्वभारती लाडनूँ की प्रखरमति विदुषी समणी मंगलप्रज्ञाजी का ग्रंथरत्न "जैन आगम में दर्शन" एक ऐसी मानक शोधकृति है जिसके परिशीलन से आगम-प्रतिपाद्य का एक पक्ष पूर्णतः विशद एवं अवदात हो उठता है। इस ग्रंथ में तत्त्वमीमांसा, आत्ममीमांसा, कर्ममीमांसा, आचारमीमांसा तथा आगमोपलब्ध जैनेतर दर्शन शीर्षकों द्वारा आगमों की दार्शनिक प्रस्तुति का सम्यक् बोध कराया गया है। लेखिका होना स्वयमेव एक महान् उपलब्धि है, परन्तु लेखिका यदि नैष्ठिक व्रतावलम्बिनी समणी भी हो तो क्या कहना? समणी मंगलप्रज्ञा जी जैन-वाडमय के साथ ही साथ समस्त भारतीय वाङ्मय की अधीती है। उनके व्यक्तित्व में विद्या के चारों ही चरणअधीति, बोध, आचरण एवं प्रचारण-साकल्येन प्रतिष्ठित हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ऐसी प्रतिभावदात तपस्विनी लेखिका का सारस्वतोपायनभूत यह सद्ग्रंथ जैनागम-साहित्य के प्रत्यक्ष एवं आनुषंगिक- दोनों ही प्रकार के पाठकों का ज्ञानवर्धन करेगा तथा जैन दर्शन को आत्मसात करने में सहायक सिद्ध होगा। समण्या रचितं प्रीत्या विमलं मङ्गलाख्यया। कल्याणाय सता भूयाद् ग्रन्थरत्नमिदं भुवि ।। 18 फरवरी, 2003 अभिराज राजेन्द्र मिश्र कुलपति सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी (उत्तर प्रदेश) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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