Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 9
________________ नान्दीवाक् जैनागम-साहित्य न केवल भगवान वर्धमान महावीर के आध्यात्मिक सदुपदेशों का प्रामाणिक संग्रह है प्रत्युत एक विस्तृत कालखण्डकी जनचेतनाओंएवं सामाजिक गतिविधियों काजीवन्त दस्तावेज भी है। इस दृष्टि से हम जैनागमों को विविध सूचनाओं का एक विश्वकोष भी कह सकते हैं। भगवान महावीर के यथावसर प्रकटित उपदेश चिरकाल तक श्रुति-परम्परा से सुरक्षित रहे, परन्तु कालान्तर में प्रतिभा सम्पन्न आचार्यों द्वारा संयोजित वाचनाओं में उन्हें अक्षरबद्ध किया गया । वलभी में सम्पन्न वाचना में सम्पूर्ण जैनागम साहित्य अपने अन्तिम रूप को प्राप्त कर सका, जो उसी रूप में अब तक प्रायः अक्षुण्ण है। मौलिक आगमों पर भाष्य, चूर्णि टीकादि लिखने की परम्परा 1 7वीं शती ई. तक प्रवर्तित रही। फलतः आज उपलब्ध होने वाला जैनागम साहित्य एक विशाल महासागर प्रतीत होता है जिसमें प्रतिष्ठित रत्नराशियों का अनुमान करना भी कठिन है। धर्म-दर्शन एवं उपासना विषयक अनुष्ठान के अतिरिक्त जैनागम साहित्य में सामुद्रिक, स्थापत्य, काव्यशास्त्र, नाट्यशास्त्र, कला, शिल्प, ज्योतिश्शास्त्र, व्याकरण, भूगोल, खगोल, भुवनसंक्षेप, गणित, क्रीड़ा-मनोविनोद एवं लोकपरम्पराओं - संस्कारों आदि का हृदयग्राही निरूपण उपलब्ध होता है। जैनागमों पर दृष्टि केन्द्रित होते ही सर्वप्रथम उसकी जो विशेषता दृष्टिगोचर होती है वह है उसकी लोकोन्मुखता। जैनागम लोकोन्मुखी है। उसकी प्रत्येक देशना जनता के उपयोगार्थ है। फलतः इन आगमों की प्रतिपाद्य-सामग्री साधु-साध्वियों की तरह ही साधारण समाज अर्थात् आगारिक उपासक-उपासिकाओं के ऐहलौकिक-पारलौकिक कल्याण पर केन्द्रित भी दीखती है। चूँकि समन्वित दृष्टि से जैनागमों का विपुल साहित्य, ई.पू. पाँचवीं शती से ईसा की पाँचवीं शती तक अर्थात् पूरी एक सहस्राब्दी में व्याप्त रहा है फलतः इसके गर्भ में एक हजार वर्षों की विविध अनुभूतियाँ सुरक्षित हैं, जो संकलनकार आचार्यों के माध्यम से आई हैं। यही कारण है कि जैनागम-साहित्य में सार्वदेशिकता, सार्वकालिकता एवं सार्वजनिकता के दर्शन होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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