Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 7
________________ आशीर्वचन] जैन आगमों का एक विशाल भाग है - द्रव्यानुयोग। उसमें द्रव्यों की सूक्ष्मतम मीमांसा उपलब्ध है। अतीन्द्रिय चेतना द्वारा उपलब्ध द्रव्यों का ज्ञान इन्द्रिय चेतना वाले मनुष्यों के लिए सरल नहीं होता, यही कारण है कि कभी द्रव्य का एक पर्याय सम्बोध में आता है और कभी उसका दूसरा पर्याय। कालावधि के साथ-साथ पर्याय बदलते रहते हैं इसलिए शोध का द्वार सदा जुला रहता है, वह कभी बंद नहीं होता। इसी आधार पर "अप्पणा सच्चमेसेज्जा'" इस सूक्त की सार्थकता है। समणी मंगलप्रज्ञा ने जैन आगमों के कुछ बिन्दुओं पर अपना शोध-कार्य किया है। उसके कुछ उद्धरण पठनीय हैं - ‘प्रस्तुत आगम भगवान महावीर के दर्शन या तत्त्वविद्या का प्रतिनिधि सूत्र है। इसमें महावीर का व्यक्तित्व जितना प्रस्फुटित है, उतना अन्यत्र नहीं है। वाल्टर शुबिंग के अनुसार भगवती के अतिरिक्त और कोई भी दूसरा ग्रन्थ नहीं है जिसमें महावीर का जीवन-चरित्र, क्रियाकलाप इतनी प्रखरता से प्रकट हुआ हो । मोरिस विंटरनित्ज (Maurice Winternitz.) का अभिमत भी इसी प्रकार का है। उनके अनुसार भगवान महावीर के जीवन, कार्य, उनका अपने शिष्यों के साथ एवं अपने सम्पर्क में आने वालों के साथ सम्बन्ध तथा महावीर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का जैसा वर्णन भगवती में है वैसा अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं है। प्रस्तुत आगम की विषय-वस्तु अत्यन्त व्यापक एवं महत्त्वपूर्ण है।' समणी मंगलप्रज्ञा की आगम और दर्शन के क्षेत्र में गति है। इसीलिए प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में आगम-साहित्य में प्रतिपादित तथ्यों का समीचीन विश्लेषण हुआ है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर यह प्रगति का नियम है। इसलिए सूक्ष्म तत्त्व की शोध में उसकी चेतना का विकास होता रं। आचार्य महाप्रज्ञ 2 8 अप्रैल, 2 (105 अणुविभा केन्द्र, जयपुर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 346