Book Title: Jain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj Author(s): Jagdishchadnra Jain Publisher: Chaukhambha Vidyabhavan View full book textPage 7
________________ छेदसूत्रों में उल्लेख है— ( ६ ) तम्हा न कहेयव्वं आयरियेण पवयणरहस्सं । खेत्तं कालं पुरिसं नाऊण पगासए गुज्झं ॥ आचार्य को प्रवचन का रहस्य किसी से न कहना चाहिए। क्षेत्र, काल, और पुरुष को जान-बूझकर ही उसे प्रकाश में लाना उचित है । इस प्रकार के विधान का कारण यही है कि छेदसूत्रों में व्रतों के अपवादनियमों का विधान है । उदाहरण के लिए, "यदि कहीं महामारी हो जाये, दुर्भिक्ष पड़ने लगे, राजा द्वेष करने वाला हो, किसी प्रकार का भय हो, रोग हो जाये या कोई अन्य मानसिक बाधा उत्पन्न हो तो वर्षा काल में भी साधु अन्यत्र गमन कर सकता है ।" लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि छेदसूत्रों में प्राय: जैन साधुओं के शिथिलाचार का उल्लेख है, और इसलिए उन्हें गोपनीय रखना चाहिए। जैन साधुओं को तो सदा मन, वचन और कर्म से अप्रमत्त रहने का ही उपदेश है। कहा है- "यदि कोई सीखा हुआ पुरुष भी यत्नपूर्वक, तलवार, hier और विषम पथ पर गमन करे तो जैसे उसके स्खलित हो जाने की आशंका रहती है, उसी प्रकार अप्रमत्त मुनि के भी स्खलित होने की सम्भावना बनी रहती है ।" इसी प्रकार " जैसे स्त्रोत-वाहिनी नदी अपना मार्ग छोड़कर उन्मार्ग से बहने लगती हैं, अथवा जाज्वल्यमान कंडे को अग्नि समय पाकर मंद हो जाती है, उसी प्रकार साधु के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए ।" . निर्ग्रन्थ प्रवचन कौ "धीर पुरुषों का शासन" बताया है। इसमें " सर्प के समान एकान्त दृष्टि और छुरे के समान एकान्त धार रखनी होती है, और लोहे के जौ के समान इसे भक्षण करना पड़ता है। बालू के ग्रास के समान यह नीरस है, महानदी गंगा के प्रवाह के विरुद्ध तैरने तथा महासमुद्र को भुजाओं द्वारा पार करने की भांति दुस्तर है, तथा असिधाराव्रत के समान इसका आचरण दुष्कर है। कायर, कापुरुष और क्लीबों का इसमें काम नहीं ।" प्राचीन जैनसूत्रों में "श्रमण धर्म को उपशम का सार" ( उवसमसार सामन्नं ) कहा है । " श्रमण धर्म का आचरण करते हुए भी यदि क्रोध आदि कषायों की उत्कटता दीख पड़े तो गन्ने के पुष्प की भांति श्रामण्य को निष्फल ही समझना चाहिए ।" ऐसी दशा में "यदि नवदीक्षित साधु का मन धर्म में न रमण करता हो तो उसे धीरे-धीरे, किसी बैल को जुए में जोतने की भांति धर्म में लगाना चाहिए । मतलब यह कि हर हालत में धर्म पालन में अप्रमत्त रहना ही योग्य है ।Page Navigation
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