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Jain Dharma
- Acharya Amrender Muni Ji Maharaj
जैन धर्म की संसार को देन
आचार्य श्री अमरेन्द्र मुनि जैन धर्म में 'जिन' का स्थान सर्वोपरि है। जिन अर्थात जिनेश्वर भगवान। इन्हें तीर्थंकर अरिहन्त आदि के रूप में भी जाना जाता है। जिन वह है जिसने राग द्वेष आदि कर्म जन्य शत्रुओं, विकारों, कषायों आदि को जीत लिया तथा हरेक को इन आध्यात्मिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा देते है।
सच्चे अर्थों में जिन का उपासक वह है जो जितेन्द्रिय है। जैन कहलाने का अधिकारी भी वास्तव में वहीं है जो अपने आप पर जय करते हुए चलता हैं। 'जिन' अर्थात जिनेश्वर देवों के द्वारा प्रतिपादित जो धर्म है वहीं जैन धर्म है। जैन धर्म में किसी भी प्रकार के सम्प्रदायवाद एवं संकीर्णता को स्थान नहीं है। जैन धर्म के मूल सिंद्धात सार्वभौम एवं न केवल मानव जगत के लिए अपितु प्राणिमात्र के लिए वरदान है। मुख्य 'सिंद्धातों में अहिंसा अपरिग्रह अनेकान्त और आत्मा और कर्म का आस्तित्व है।
मेरा अपना मानना है कि जैन धर्म के इन सिद्धांतों को आज आचरण में लाया जाये तो व्याक्तिगत पारिवारिक एवं सामाजिक राष्ट्रीय क्षेत्र में ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है।
अहिंसा का अर्थ न हिंसा “अहिंसा" अर्थात हिंसा न करना और प्रमाद व कषाय के वशीभूत होकर किसी भी प्राणी के प्राणों का हनन नहीं करना। जैन धर्म की अहिंसा बहुत व्यापक है और इस पर बहुत सूक्ष्म रूप से विचार हुआ है। हिंसा का अर्थ किसी भी प्राणी को मारना नहीं अपितु कटु बोलना व सोचना भी है। इसी तरह अपरिग्रह केवल अपना पेट और पेटी भरने तक नहीं अपितु मर्यादा में रहते हुए अर्थ आदि का यथासंभव सभी के लिए उपयोग है। अनेकान्त सिद्धांत परिवार से लेकर विश्वव्यापी संघषों को समाधान देने वाला सिद्धांत है। इस सिद्धांत में किसी भी तरह के दुराग्रह एवं अहं को स्थान नहीं है अपितु सत्य का खुले मन से स्वागत करता है। कर्म सिद्धांत सुख
Jainism: The Global Impact
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