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न स शब्दो न तद्वाच्य न स न्यायो न सा कला ।
जायते यन्न काव्यागमहो भारो महान् कवेः ॥ ... शब्द उक्ति नीति और कला ये काव्य के अंग जहां नहीं बनते हैं, तो वह काव्य कविका वोझ ही है।
पैदिक साहित्यमें कवि शब्द का प्रयोग प्रथम ईश्वर के लिए हुआ हैं। कवि मनीषी परिभूः स्वयम्यूः" (शुक्ल यजुर्वेद संहिता ४० अध्याय ) शब्द शास्त्र के समर्थ विद्वानों ने शब्द और अर्थ को परमात्मा का कर्म कहा हैं और कवियों ने इसि परम्परा को स्वीकार कर काव्यों का निर्माण किया हैं । यह श्रोतोत इसविषयमें हमारे सामने एक सुधारक बनकर आते हैं। उनका कहना हैं कि ऋषि ही कवि हैं क्योंकि मन्त्रों के द्रष्टा ऋषि वर्णन कर कवि हुए हैं। जिसमें देखने की दिव्य शक्ति हैं और वर्णन करने की अद्भूत कला है वही कवि है
नानृषिः कविरित्युक्तमृषिश्च किलदर्शनात् । विचित्रभावधर्माशतत्त्वपुरव्या च दर्शनम् ॥ सतत्त्वदर्शनादेव शास्त्रेषु कथितः कविः ।। दर्शनाद्वर्णनाच्चाथ रूढा लोके कवि श्रुतिः ॥ भारत के अनेक गुणोपेत एक तपस्वी त्यागी महाकवि वाल्मीकि हुए तदनन्तर महर्षि व्यास कालिदास, गुणाढ्य अश्वोष सिद्धशेन दिवाकर आदि । ___ “हीरकाव्य' के नायक का सर्जन मुगल कालमें हुआ, उस समय रामचरितमानसकार सहृदय संत तुलसी बात्सल्य रसरसिक सूरदास जन्म जन्म की वियोगिनी मीरां आदि अनेक महापुरुष भक्ति तत्त्व के गायक शान तत्त्वके सहायक समुद्भित हुए दार्शनिक धरा पर गमानुज निम्बार्क रमानन्द चैतन्य मध्वादि ज्योतिर्मान् शान नायक उद्रित हो रहे थे । कुछ उद्रित ही थे । जैन परम्परा में आचार्य विजय हीरसूरिजी उस समय में थे। ____ आचार्य विजय हीर उस युग के एक अलौकिक शक्तिशाली समर्थ धर्माचार्य थे अहिंसा संयम और ता की विपुदी में जन जीवन को जोड रहे थे। देशका लावण्य अद्भूत था और बुद्धिका चमत्कार विचित्र था। विचारों का शौय्य था। और आचारों का शील था-अतः क्रमशः जीवन की ज्योति दिव्यमयी बनती गई। उस काल के सम्राट अकबर ने भी उनको आदर से देखा और उपदेशो का अपने आपको पात्र बनाया। ___ आचार्य विजय हीरसूरि का चरित्र कवियोंकि कल्पनाओं में साकार होता गया समाज के जीवन में चरितार्थ बनता गया । चरितार्थ चरित्र ही जीवन का संगीन इतिहास बनाता है । इतिहास पुरातनका भण्डार है और नवीनतम का प्रेरणाकेन्द्र हैं । इसलिए वैदिक साहित्यमें इतिहास को पांचवा वेद कहा हैं(इतिहास पुराण पंचम वेदानाम् )
(छान्दोग्य, उप.) शब्द अर्थ की सत्ता को लेकर साहित्यमें धूम मचाता हैं । साहित्य शब्दार्थो का सत्य लेकर लोक मान्य जीवनों को कल्पनाओंसे कमनीय बनाता हैं । ऐसा कि आचार्य भद्रबाहु स्वामीने कहा हैं