Book Title: Guru Shishya Author(s): Dada Bhagwan Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust View full book textPage 8
________________ संपादकीय लौकिक जगत् में बाप-बेटा, माँ-बेटा या बेटी, पति-पत्नी वगैरह संबंध होते हैं। उनमें गुरु-शिष्य भी एक नाजुक संबंध है। गुरु को समर्पित होने के बाद पूरी ज़िन्दगी उनके प्रति ही वफादार रहकर परम विनय तक पहुँचकर, गुरु आज्ञा के अनुसार साधना करके सिद्धि प्राप्त करनी होती है। वहाँ लेकिन सच्चे गुरु के लक्षण, वैसे ही सच्चे शिष्य के लक्षण कैसे होते हैं, उसका सुंदर विवेचन यहाँ पर प्रस्तुत हो रहा है। जगत् में विविध मान्यताएँ गुरु के लिए प्रवर्तमान हैं और तब ऐसे काल में यथार्थ गुरु बनाने के लिए लोग उलझन में पड़ जाते हैं। यहाँ पर वैसी उलझनें प्रश्नकर्ता द्वारा ‘ज्ञानीपुरुष' से पूछी गई हैं और समाधानी स्पष्टीकरण रूपी उत्तरों की प्राप्ति हुई है। 'ज्ञानीपुरुष' मतलब जगत् के व्यवहार स्वरूप की, वैसे ही, वास्तविक विज्ञान स्वरूप की ओब्जर्वेटरी ! ऐसे 'ज्ञानीपुरुष' के श्रीमुख से - गुरुपद अर्थात् क्या? गुरु की अध्यात्म में ज़रूरत है क्या? ज़रूरत है तो कितनी? गुरु के लक्षण क्या-क्या होने चाहिए? गुरुत्तम या लघुत्तम? गुरुकिल्ली सहित हैं? लोभ, लालच या मोह में गुरु फँसे हुए हैं? लक्ष्मी, विषय या शिष्यों की भीख अभी भी है उनमें? गुरु को चुना किस प्रकार जाए? गुरु किसे बनाएँ? कितने बनाएँ? एक बनाने के बाद फिर दूसरे को बना सकते हैं? गुरु नालायक निकलें तो क्या करें? इस प्रकार गुरुपद के जोखिमों से लेकर, शिष्यपद अर्थात् क्या, शिष्य कैसे होने चाहिए, और शिष्यपद की सूक्ष्म जागृति तक की तमाम समझ तथा गुरु के किस प्रकार के व्यवहार से खुद का और शिष्य का हित होता है, और शिष्य को खुद के हित के लिए कौन-सी दृष्टिपूर्वक गुरु के पास रहना चाहिए और शिष्य को गुरुपद कहाँ स्थापन करना चाहिए कि जिससे उसे ज्ञान की प्राप्ति होकर परिणमित हो, और गुरु में कौन-कौन से रोग नहीं होने चाहिए, ताकि वैसे गुरु उनके शिष्य का हित करने के लिए समर्थ बने, एकलव्य जैसी गुरुभक्ति कलियुग में कहाँ से मिले, ज्ञानीपुरुष ने गुरु बनाए हैं या नहीं, उन्होंने शिष्य बनाए हैं या नहीं, खुद कौन-से पद में बरतते हैं, वगैरह-वगैरह तमामPage Navigation
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