Book Title: Gadyachintamani Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 4
________________ प्रस्तावना खकोंने लिया है । गचिन्तामणिके 'जीवन्धरप्रभवपुण्यपुराणयोगात्' इस सामान्यपदसे उत्तरपुराणको स्पष्टता होतो भी तो नहीं है। इलोकका सोधा अर्थ यह है कि जिस प्रकार फूलोंको संगतिसे कारण लोग बन्धनमें उपमत होनेवाले निःसार तन्तुओंको मस्तकपर धारण करते है उसी प्रकार चूंकि मेरे वचन भी जीवन्धर स्वाभीसे उत्पन्न पवित्र पुराणके साथ सम्बन्ध रखते हैं-उसका वर्णन करते हैं। अतः दोनों लोकोंमें हितप्रदान करनेवाले होंगे। इस परिप्रेक्ष्यमें गद्यचिन्तामणिके आधारस्तम्भको खोज अपेक्षित है। जोवन्धरस्वामीके चरितका तुलनात्मक अध्ययन इस स्तम्भमें गद्यचिन्तामणि, उत्तरपुराण, तथा जीवन्धरचम्पू आदिके आधारपर जीवन्धरस्वामी के चरितका तुलनात्मक अध्ययन प्रकट किया जाता है। एक बार मगध सम्राट राजा श्रेणिक भगवान् महावीरके समवसरण सम्बन्धी आम्रादि चारों वनोंमें धूम रहे थे। वहींपर अशोक वृक्षके नीचे जीवन्धर मुनिराज ध्यानारूढ थे। महाराज श्रेणिक उनके अनुपम सौन्दर्य तथा अतिशय प्रशान्त ध्यानमुद्रासे आकृष्ट चित्त हो उनका परिचय प्राप्त करनेके लिए उत्सुक हो उठे । फलतः उन्होंने समवसरणके भीतर जाकर सुधर्माचार्य गणधर देवसे पूछा-'ये मुनिराज कौन हैं ? जान पड़ता है अभी हाल कर्मोका क्षय कर मुक्त हो जाने वाले हैं।' इसके उत्तरमें चार ज्ञानके धारक सुधर्माचार्य कहने लगे-- हे श्रेणिक ! इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें हेमांगद नामका देश है और उसमें सुशोभित है राजपुर नगर । इस नगरका राजा सत्यन्धर था और उसको दूसरी विजयलक्ष्मीके समान विजया नामको रानो थी। राजा सत्यन्धरका काष्ठांगारिक नामका मन्त्री था और देवजन्य उपद्रवोंको नष्ट करनेवाला रुद्रदत्त नामका पुरोहित था । एक दिन विजया रानीने दो स्वप्न देखे । पहला स्वप्न था कि राजा सत्यन्धरने मेरे लिए आठ घण्टाओंसे सुशोभित अपना मुकुट दिया है और दूसरा स्वप्न या कि वह जिस अशोक वृक्षके नीचे बैठी धी उसे किसीने कुल्हाड़ीसे काट दिया है और उसके स्थानपर एक छोटा-सा अशोकका वृक्ष उत्पन्न हो गया है। प्रातःकाल होते ही रानीने राजासे स्वप्नोंका फल पूछा। राजाने कहा कि मेरे मरने के बाद तू शीघ्र ही ऐसा पुत्र प्राप्त करेगी जो आठ लाभोंको पाकर पृथिवीका भोका होगा। स्वप्नोंका प्रिय और अप्रिय फल सुनकर रानीका चित्त शोक और हर्षसे भर गया । उसको व्यग्रता देख राजाने उसे अच्छे शब्दोंसे सन्तुष्ट कर दिया जिससे दोनोंका काल सुखसे व्यतीत होने लगा। उसी राजपुर नगरमें एक गन्धोत्कट नामक धनी सेठ रहता था, उसने एक बार तोन ज्ञानके धारक शीलगुप्त मुनिराजसे पूछा कि भगवन् ! हमारे बहुत-से अल्पायु पुत्र हुए है क्या कभी दीर्घायु पुत्र भी होगा ? मुनिराजने कहा कि हाँ, तू दोर्घायु पुत्र प्राम करेगा। किस तरह ? यह भी सुन । तेरे एक मृत पुत्र उत्पन्न होगा उसे छोड़नेके लिए जब तू वनमें जायेगा तब वहीं किसी पुण्यात्मा पुत्रको पावेगा। वह पुत्र समस्त पृथिवीका उपभोक्ता हो अन्त में मोक्ष लक्ष्मीको प्राप्त करेगा। जिस समय मुनिराज, गन्धोत्कटसे यह वचन कह रहे थे उसी समय वहाँ एक यक्षी बैठी थी। मुनिराजके बचन सुन यक्षोके मनमें होनहार की माताका उपकार करनेको इच्छा हुई। निदान, जब राजयुगको उत्पत्तिका समय आया तब वह यक्षी उसके पुण्यसे प्रेरित हो राजकुलमें गयी और एक गरुडयन्त्रका रूप बनाकर पहुंची। .. पद्यचिन्तामणि आदिमें इस पुरोहितका कोई उल्लेख नहीं है। २. गचिन्तामणि आदिमें तीन स्वप्नोंकी चर्चा है- पहले स्वप्नमें एक विशाम अशोक वृक्ष देखा, दूसरे स्वप्नमें उस वृक्षको नष्ट हुआ देखा और तीसरे स्वप्न में उस नष्ट वृश्नम-से उत्पन्न हुए एक छोटे अशोक वृक्षको देखा जिसकी आठ शाखाओंपर आठ मालाएँ लटक रही थीं। ३, गद्यचिन्तामणिमें चर्चा है कि राजाने रानीका दोहला पूर्ण करने के लिए कारीगरसे मयूरयन्त्र बनवाया था और उसमें बैठाकर उसे आकाशमें घुमाया था ।Page Navigation
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