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प्रस्तावना
कर पोछे आवेगा वही इस कन्याका पति होगा। अन्य धनुषधारियोंके कहनेसे जीवन्धर कूमारने भी अपना बाण छोड़ा और वह लक्ष्यको वेधकर वापस उनके पास आ गया। निमित्तज्ञानीके कहे अनुसार उनका हेमाभाके साथ विवाह हो गया ।' गन्धर्वदत्ताको सहायतासे नन्दाढ्य स्मरतरंगिणी नामक शय्यापर सोकर भोगिनी विद्याके द्वारा जीवन्धर कुमारके पास पहुँच गया। राजा दृढ़मित्रके गुणमित्र, बहुमित्र, सुमित्र और धनमित्र आदि कितने ही पुत्र थे। उन सबके साथ जीवन्धर कुमारका समय सुखसे व्यतीत होता रहा। नटनन्तर उसी हेमाम नगर में श्रीचन्द्राके साथ यवक नन्दाढ्यका विवाह हुआ।' सरोवरका रक्षक एक विद्याधर मुनिराजके मुखसे सुनकर जीवन्धर स्वामीके पूर्वभवोंका वर्णन इस प्रकार करने लगा
धातकोखण्ड द्वीपके पूर्व मेरुसम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्रमें पुष्कलावती नामका देश है। उसकी पुण्डरीकिणी नगरीमें राजा जयन्धर राज्य करता था। उसकी जयावती रानीसे तू जयद्रथ नामका पुत्र हुआ था। किसी समय जयद्रथ क्रीड़ा करने के लिए मनोहर नामके वनमें गया, वहाँ उसने सरोवरके किनारे एक हंसका बच्चा देखकर कौतुक वश चतुर सेवकों के द्वारा उसे बुला लिया और उसके पालन करनेका प्रयत्न करने लगा। यह देख, उस बच्चे के माता-पिता शोकाकुल हो आकाशमें बार-बार करुण-क्रन्दन करने लगे। उनका शब्द सन तेरे एक सेवकने कान तक धनुष खींचा और एक बाणसे उस बच्चे के पिताको नीचे गिरा दिया। यह देख, जयद्रथको माताका हृदय दयासे आर्द्र हो गया और उसने पूछा कि यह क्या है ? सेवकसे सब हाल जानकर वह पक्षीके पिताको मारनेवाले सेवकपर बहुत कुपित हुई तथा तुझे भी डांटकर कहने लगी कि हे पुत्र ! तेरे लिए यह कार्य उचित नहीं है, तू शीघ्र ही इसे इसकी मातासे मिला दे। इसके उत्तरमें तूने कहा कि यह कार्य मैंने अज्ञानता वश किया है। और जिस दिन बालकको पकड़वाया था उसके सोलहवें दिन उसकी मातासे मिला दिया। काल पाकर जयद्रथ भोगोंसे विरक्त हो साथ हो गया और अन्त में सल्लेखना कर सहस्रार स्वर्गमें अठारह सागरको आयुवाला देव हुआ और आयु समाप्त होनेपर तू जीवन्धर हुआ है तथा पक्षीको मारनेवाला सेवक काष्टांगारिक हुआ है। और उसीने तुम्हारा जन्म होनेसे पूर्व तुम्हारे पिता राजा सत्यन्धरको मारा है। तुमने सोलह दिन तक हंसके बच्चेको उसके माता-पितासे अलग रखा या । उसीके फलस्वरूप तुम्हारा सोलह वर्ष तक माता तथा भाइयोंसे वियोग हुआ है। जीवन्धर कुमारने उस विद्याधरसे अपने पूर्वभव सुनकर बड़ी प्रसन्नता प्राप्त की।
इधर जब नन्दाढय राजपुरी नगरीसे बाहर हुआ तब मधुर आदि मित्र शंकामें पड़ गये। उन्होंने गन्धर्वदत्तासे पूछा तो उसने स्पष्ट बताया कि इस समय जीवन्धर और नन्दाढय दोनों भाई सुजन देशके हेमाभनगरमें सुखसे रह रहे हैं। गन्धर्वदत्तासे पता आदि पूछकर सब मित्र उन दोनोंसे मिलनेके लिए चल पड़े।
चलते-चलते वे मार्गमें दण्डक वन सम्बन्धी तापसोंके उस आश्रममें ठहरे जहाँ कि विजयारानो रहती थी। अन्य तापसोंके साथ विजयारानीने उन सबको देखा और यह जानकर कि ये हमारे प है कहा कि लौटते समय आप लोग जोवन्धरको भी साथ लेते माइए तथा यहाँ अबश्य ठहरिए । बिजयाको मुखाकृति जीवन्धरसे मिलती-जुलती थी इसलिए सबको सन्देह हुआ कि यह जीवन्धरकी माता है। दण्डक बनसे आगे चलनेपर उन्हें भीलोंकी सेनाने घेर लिया परन्तु अपनी शर-वीरतासे ये उसे परास्त कर आगे निकल गये । तदनन्तर दूसरी भोलोंको सेनाले साथ मिलकर वे हेमाभनगर पहुँचे और वहाँके सेठोंको
१. अन्यत्र कन्याका नाम कनकमाला लिखा है। गधचिन्तामणि आदिमें हदमित्रके सुमित्र भादि पुत्रों द्वारा एक भामका फल तोड़ना, उसमें सफल नहीं होना और जीवन्धर कुमारके द्वारा उसका तोड़ा जाना, इससे प्रभावित होकर सुमित्र आदि के द्वारा जीवन्धरको अपने घर ले जाना, उनसे शस्त्र विद्या सीखना और अन्त में कनकमाळाका विवाह कर देना मादिका वर्णन है। २. इसके पूर्व उत्तरपुराणमें एक विस्तृत कथा आती है जिसका गद्यचिन्तामणि आदिमें कोई उल्लेख नहीं है। ३. जीवन्धरके पूर्व मयों का वर्णन गधचिन्तामणि आदिमें अन्यत्र दिया है तथा उसमें नाम आदिका बहुत भेद है। ४. गद्यचिन्तामणि आदिमें उल्लेख है कि जीवन्धर पूर्व मवमें धातकीखण्ड द्वीपके भूमितिलक नगरके राजा पवनवेगके यशोधर नामके पुत्र थे। हंसशिशुको पकड़नेपर पिता जीवन्धरको उपदेश दिया।