Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ प्रस्तावना. १३ श्वास कहते हैं और माश्वासके प्रारम्भमें आर्या, वक्त्र तथा अपवस्त्र छन्दोंमें से किसी छन्दके द्वारा अन्यके बहाने भावी अर्थको सूचना दी जाती है। जैसे - हर्षचरित आदि । कथा मोर आख्यायिकामें अन्तर बतलाते हुए किन्हीं - किन्हीं लोगोंने कहा है कि 'आख्यायिका नायकेनैव निबद्धव्या' - आख्यायिकाको रचना नायकके द्वारा ही होती है और कथाकी रचना अन्य कविके द्वारा। परन्तु दण्डीने 'अपि त्वनियमो दृष्टस्तत्राप्यन्यैरुदीरणात्' इस उल्लेख द्वारा उक्त अन्तरकरणका निषेध किया है। गद्य आख्यान, परिकथा, खण्डकथा आदि अनेक भेद हैं परन्तु उनका कथामें ही अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिए दण्डीका निम्न वचन द्रष्टव्य है 'अवान्तर्भविष्यन्ति शेपाश्चाख्यानजातयः' । आख्यानमें पंचतन्त्र आदि आते हैं । गद्यकी धारा - गद्यको धारा सदा एक रूपमें प्रवाहित नहीं होती किन्तु रसके अनुरूप परिवर्तित होती रहती है । रौद्र अथवा वीररसके प्रकरण में जहाँ हम गद्यकी समासबहुल गौडोरीतिप्रधान रचना देखते हैं वहाँ शृंगार तथा शान्त आदि रसोंके सन्दर्भ में उसे अल्पसमाससे युक्त अथवा समासरहित वैदर्भीतिप्रधान देखते हैं । संस्कृत गद्य साहित्य में बाणको कादम्बरीका जो बहुमान है वह उसकी रसानुरूप शैलीके ही कारण है । नाटकोंमें और खासकर अभिनयके लिए लिखे हुए नाटकों में गद्यका दीर्घसमास रहित रूप ही शोभा पाता है । संस्कृत-साहित्य में भवभूतिके मालतो माघव और हस्ति मल्ल के विक्रान्तकौरवका गद्य नाट्य साहित्यके अनुरूप नहीं मालूम होता । जिस गद्यको सुनकर दर्शकको झटिति भावावबोध न हो वह रसानुभूतिका कारण कैसे हो सकता है ? भास और कालिदासकी भाषा नाटकों के सर्वथा अनुरूप है । गद्यचिन्तामणिके कर्ता वादोर्भासह सूरि गद्यचिन्तामणिके प्रत्येक लम्भके अन्तमें दिये हुए पुष्पिकावाक्यों ( इति श्रीमद्वादोर्भासह सूरिविरचिते गद्यचिन्तामणी सरस्वतीलम्भो नाम प्रथमो लम्भ: आदि) से निर्भ्रान्ति सिद्ध हूँ कि यह महनीय कृति श्रीवादिर्भासह सुरिकी रचना है । गद्यचिन्तामणिके सम्पादनार्थ प्राप्त चार हस्तलिखित प्रतियों में से तीन प्रतियों के अन्त में निम्नलिखित दो इलोक और पाये जाते हैं श्रीमद्वादीनि गद्यचिन्तामणिः कृतः । स्थेयादोडयदेवेन चिरायास्थानभूषणः || स्थेयादोडयदेवेन वादीभहरिणा कृतः । गद्यचिन्तामणिलोंके चिन्तामणिरिवापरः ॥ इन श्लोकोंमें प्रकट किया गया है कि श्रीमद्वादीभसिंह उपाधिके धारक ओडयदेवके द्वारा रची हुई यह गद्यचिन्तामणि जो कि सभाओंका आभूषण है चिरकाल तक विद्यमान रहे । ' यादसिंह थोडयदेव के द्वारा रचित यह गद्यचिन्तामणि जो कि लोकमे अद्वितीय चिन्तामणिके समान है चिरकाल तक स्थिर रहे । समग्र प्रतियोंमें न पाये जानेके कारण सम्भव है कि ये श्लोक स्वयं वादीभसिंह सूरिके द्वारा रचित न हों, पोछेसे किसी विद्वान्ने जोड़ दिये हों परन्तु जब 'वादीभसिंह' इस नामको निरुक्तिपर ध्यान जाता है तब ऐसा लगता कि यह इनका जन्मजात नाम न होकर पाण्डित्योपार्जित उपाधि है । अतः 'बोडयदेव' यह इनका जन्मजात नाम है और 'वादीभसिंह' ( वादीरूपी हाथियोंको जोतनेके लिए सिंह ) यह उपाधि है । उक्त श्लोकोंमें उनके यथार्थ नामका उल्लेख उपाधिके साथ किया गया है अतः पीछेसे किसी अन्य विद्वान्के द्वारा उल्लिखित होनेपर भी ग्राह्य जान पड़ते हैं ।

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