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प्रस्तावना
कुमारको राज्य दे नन्दाढ्य आदिके साथ दीक्षा धारण कर लो। महादेवी विजया तथा गन्धर्वदत्ता आदि रानियोंने भी चन्दना आर्याके पास दीक्षा ले ली।
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सुधर्माचार्य राजा श्रेणिकसे कहने लगे कि अभी जीवन्धर मुनिराज महातपस्वी श्रुतकेवली हैं । परन्तु घातिया कर्मोंको नष्ट कर केवलज्ञानी होंगे और भगवान् महावीर के साथ विहार कर उनके मोक्ष चले जानेके बाद विपुलाचलसे मुक्ति प्राप्त करेंगे ।
गद्य काव्य
'गदितुं योग्यं गये' इस निरुक्तिसे गद्य शब्दको निष्पत्ति 'गद व्यक्तायां वाचि' धातुसे होती है और उसका अर्थ होता है स्पष्ट कहने के योग्य । मनुष्य जिसके द्वारा अपना अभिप्राय स्पष्ट कह सके वह गद्य है । मनुष्य पद्य में मात्राओं और गणोंकी पराधीनतामें ऐसा जकड़ जाता है कि खुलकर पूरी बात कहनेकी उसमें सामर्थ्य ही नहीं रहती । कर्ता, कर्म, क्रिया और उनके विशेषणोंका जो स्वाभाविक क्रम होता है वह भो पद्य में समाप्त हो जाता है । कर्ता कहीं पड़ा है कर्म कहीं है, क्रिया कहीं हैं और उसके विशेषण कहीं हैं । बिना अन्वयको योजना किये पद्यका अर्थ लगाना भी कठिन हो जाता हूँ परन्तु गद्यमें यह
बेतुकापन नहीं रहता । हृदय यह स्वीकृत करना चाहता है कि भाषामें गद्य प्राचीन है और पद्य अर्वाचीन शिशुके मुखसे जब वाणीका सर्व प्रथम स्रोत फूटता है तब वह गद्य रूपमें ही फूटता है । पद्यका प्रवाह प्रबुद्ध होनेपर जिस किसी के मुखसे हो फूट पाता है सबके नहीं । गद्य मानवको निसगं सिद्ध वाणी है और पद्य कृत्रिम |
इतना होनेपर भी पद्यके प्रति लोगोंका जो आकर्षण है उसका कारण है उसकी संगीत-प्रियता । मनुष्य चाहे पढ़ा हो चाहे बिना पढ़ा संगीतको स्वरलहरी में नियमसे झूम उठता है। मनुष्यकी बात जाने दो पशु-पक्षी भी संगीत-सुधामें विनिमग्न हो जाते हैं । वीणाकी स्वरलहरी सुन छिपा हुआ सर्प बाहर मा जाता है और सस्यस्थलीपालक बालिकाओंके अल्हड़ गीत सुन मृग चित्र-लिखित से स्थिर हो जाते हैं । कोयल की कूकको आप बारीकीसे सुनें तो पता चलेगा — कभी वह अपनी वाणीको मधुरिमा पंचम स्वरसे बिखेर रही हैं, तो कभी साधारण स्वरमें ही कूक रही है। भले ही मनुष्य संगीतका नाम और स्वर रत्ती भर नहीं जानता हो फिर भी संगीत सुन उसका सिर हिलने लगेगा और ताल देनेके लिए कुछ नहीं होगा तो अपने हाथ की हथेलियाँ ही जंघाओंपर थपथपाने लगेगा। गद्यको अपेक्षा पद्यमें संगीत हैं, किसीमें स्वर ताल स्पष्ट है और किसी में अस्पष्ट । अपनी उसी संगीत-प्रियता के कारण मनुष्य पद्यकी ओर आकृष्ट हुआ । गद्यकी अपेक्षा रस-परिपाक भी पद्यमें अधिक दिखाई देता है । अन्त्यानुप्रास तथा अन्य अलंकार भी गद्यको अपेक्षा में ही अधिक खिलते हैं । जनताके इस आकर्षणसे पद्यकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि काव्य तो दूर रहा धर्म, दर्शन, ज्योतिष आयुर्वेद, गज, अश्व-विज्ञान तथा शकुन आदि सभी शास्त्र पद्यमें ही लिखे जाने लगे । व्याकरण-जैसा नीरस विषय भी कहीं-कहीं कारिकाओंसे अलंकृत किया गया। इस प्रकार संस्कृत साहित्य में पद्यने गद्यको पीछे धकेल दिया | हिन्दी साहित्यका प्रारम्भिक युग भी पद्यसे ही प्रचलित हुआ । फल यह हुआ कि शारदाका सदन पद्य ग्रन्थ रूप असंख्य दोपकोंके आलोकसे जगमगाने लगा और गद्य-ग्रन्थ-रूप दीपक उसमें निष्प्रभ हो टिमटिमाने लगे ।
'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति'
पद्य साहित्यकी इतनी प्रचुरता और लोकप्रिय के होनेपर भी गद्य-साहित्य ही स्थिर ज्योति:स्तम्भ के समान कल्पनाओंके अन्तरिक्षमें उड़नेवाले कवियोंको मार्ग-दर्शन कर रहा है। विद्वानोंकी विद्वत्ताको परख कवितासे न होकर गद्यसे ही होती देखी जाती है। अब भी संस्कृत-साहित्यमें यह उक्ति जोरोंसे प्रचलित है— 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' अर्थात् गद्य ही कवियोंको कसौटी है । कविके वैदुष्यकी कमी कविताकामिनी अंचल में सहज ही छिप सकती है पर गद्य में कविको अपनी कमी छिपाने की कोई गुंजाइश नहीं रहती । कविता छन्दको परतन्त्रता कविकी रक्षा के लिए उन्नत प्राचीरका काम देती है पर गद्य लेखककी रक्षा के लिए कोई प्राचीर नहीं रहती । उसे तो खुले मैदान में ही जूझना पड़ता है। गद्य साहित्यकी विरलता